शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

 बौद्ध धर्म का उत्थान एवं पतन


भारत में बौद्ध धर्म का जन्म ईसा पूर्व ६ वी शताब्दी को हुआ। किन्तु जन्म के 500 वर्ष बाद ही उसका क्षरण सुरु हो गया था। कालक्रम में भारत से बौद्ध धर्म लगभग समाप्त हो चुका था। परन्तु विश्व के अन्य जापान, कोरिया, कम्बोदया, बर्मा, तिबत आदि भागों में बौद्ध धर्म का प्रसार एवं विकास होता रहा। 


बौद्ध धर्म का विकास ईसा पूर्व ६ वी शताब्दी से प्रारम्भ होकर सम्राट अशोक के साम्राज्य तक राज्यधर्म के रूप में होता रहा। वह समस्त भारत के साथ चीन, जापान, लंका, अफगानिस्तान, सिंगापुर, थाईलैंड और एशिया के पश्चिमी देशों तक फैल गया। इतिहास प्रसिद्ध हिन्दू सम्राट् ने कलिंग युद्ध के पश्चात बौद्ध धर्म ग्रहन कर इसे राजधर्म बना दिया। 


कुछ विद्वानों के अनुसार बौद्ध धर्म भिक्षुओं के नैतिक पतन के कारण ही बौद्ध धर्म का पतन हुआ है किन्तु यह आंशिक सत्य है। यह भी उन कारणों में से एक है जिस से पतन हुआ। प्रत्येक धर्म कि शुरुआत अच्छे उद्देश्यों से होती है किन्तु बाद में इसमे तरह तरह की भ्रांतिया आ जाती है वैसे ही बौद्ध धर्म के साथ भी हुआ था। 


बौद्धकाल ने ना केवल बृहद विकास का दौर देखा था, अपितु सशक्त प्रथम केन्द्रिय सत्ता भी देखी है। ईस काल में भारतवर्ष् अध्यात्म एवम ज्ञान का केन्द्र बन गया था। बौद्ध धर्म के तीव्र विस्तार से उस समय धार्मिक एवम राजनैतिक के अतिरिक्त आर्थिक विकास भी खूब हुआ। भारत में बौद्ध धर्म के पतन के अनेक कारण गिनाये जाते हैं।


बौद्ध धर्म के विनाश का पहला बाह्य कारण है- बाह्य आक्रमणों ने इसको समाप्तप्राय कर दिया। इस्लाम ने जितना बौद्ध और सनातन धर्म का नुकसान किया उतना और किसी कारण से नही हुआ।


मध्य एशिया से आये श्वेत हुन तथा मंगोल, मुस्लिम शासक मुहम्मद बिन कासिम, मेह्मुद गजनवी तथा मोहमुद गौरी ईत्यादि को माना जा सकता है। भारत के उत्तरी पूर्व भाग से आने वाले श्वेत हुन तथा मंगोलो के आक्रमनो से भी बौद्ध धर्म को बहुत हानि हुई। मुहम्मद बिन कासिम का सिन्ध पर आक्रमन करने से भारतीयों का पहली बार् इस्लाम से परिचय हुआ। सिन्ध का शासक दाहिर एक बौद्ध शासक था। राजा दाहिर को मुहम्मद ने हरा दिया। मेहमद गजनवी ने १० वी शताब्दी ईसवी में बौद्ध एवं सनातनी दोन्हों धर्मो के धार्मिक स्थलो को तोडा एवं सम्पूर्ण पंजाब क्षेञ पर कब्जा कर लिया। इस प्रकार से बहुत से बौद्ध नेपाल एवम तिब्बत की ओर भाग गये। अंग्रेज अफसर ह्चीसन के अनुसार तुर्किश जनरल मुहम्मद बख्तियार खिल्जी के द्वारा भी बडी मात्रा में बौद्ध भिक्खुओ का कत्लेआम किया गया था।  नालन्दा जैसे महान विश्व विद्यालय को इन्होंने ही जला डाला और लाखों हिन्दू बौद्ध विद्वानों को मार डाला। कहते है 6 महीने तक नालन्दा जलता रहा। सन्यासी नागा महात्माओं के साथ बौद्ध भिक्षुओं की दोस्ती थी। उनकी एक महानिर्वाणी अखाड़े में लामा मढ़ी थी। उनके साथ तिब्बती बौद्ध भीखू उनमें वे रहते थे। तिब्बती भाषा में सन्यासी को लामा कहते है। लेकिन नालन्दा के नष्ट होने पर वे इतने अधिक दुःखी हुए की वे अंतिम रूप से तिब्बत चले गये। आज भी महानिर्वाणी अखाड़े के अंतर्गत कई मढ़ियों में एक लामा मढ़ी भी है लेकिन अब उसमें कोई नही आता। बहुत दिनों तक कुंभ पर्व पर उनकी जगह आरक्षित रखी जाती रही। अब समय आ गया है कि पुनः वह लामा मढ़ी जीवित हो और सभी सन्यासी, भिक्षु लामा, वैष्णव, मुनि एक जगह आ जाये।


मंगोल चंगेज खान ने सन १२१५ में अफगानिस्तान एवम समस्त मुस्लिम देशों में तबाही मचा दी थी। उसकी मौत के बाद उसका साम्राज्य दो भागो में बट गया। भारतीय सीमा पर चगताई ने चगताई साम्राज्य खडा किया तथा ईरान प्लातु पर हलाकु खान ने अपना साम्राज्य बनाया। जिसमे हलाकु के पुत्र अरघुन ने बौद्ध धर्म अपना कर इसे अपना राजधर्म बनाया था। उसने मुस्लिमों की मस्जिदो को तोड्कर स्तुप निर्माण किये। तैमुरलङ ने १४ वी सदी में लगभग सारे पश्चिम एवम मध्य एशिया को जीत लिया था, तेमुर ने बहुत से बुद्धिस्ट स्मारक तोडे एवम बौद्धों को मारा। इससे बौद्ध धर्म को बहुत नुकसान हो गया, यह इस्लामिक आक्रमण ही वास्तविक बौद्ध धर्म के भारत से लोप होने का कारण बना, क्योंकि उनमें अहिंसावादी होने के कारण लढकर जीवित रहने का साहस नही था। सनातन धर्म अपने अस्तित्व के लिए युद्ध से स्वयं की रक्षा की प्रेरणा देता है।


दूसरा कारण है आंतरिक पुनः सनातन धर्म का उदय।

भले ही बौद्ध धर्म राज धर्म था लेकिन बहुसंख्यक प्रजा सनातनी वैदिक थी। सनातन धर्म से बौद्ध धर्म का कोई वैचारिक मतभेद से अधिक कोई खास वैर भी नही था। बौद्ध धर्म में भी अधिकतर उच्च कुलीन क्षत्रिय तथा कुछ मध्यम वर्गीय लोग सम्मिलित थे। शिक्षित ब्राह्मण समुदाय ने भी बौद्ध धर्म बढ़ाने में अधिक योगदान दिया।  


कुछ विद्वानों के कथनानुसार भारतवर्ष से बौद्ध धर्म के लोप का कारण 'सनातन धर्म का पुनः उत्थान' ही था। बौद्ध धर्म के पूर्व सभी वैदिक सनातन धर्म का पालन करते थे। स्वयं बुद्ध भी सनातनी क्षत्रिय कुल से थे। अतः स्वाभाविक रूप से बौद्ध विचार धारा का विस्तार  सनातन धर्म के स्थान पर हुआ।


 मौर्यकाल में सम्राट अशोक ने बौध्द धर्म को अपना राजधर्म बना लिया था। इसके आचरनानुसार वैदिक बलिप्रथा पर भी रोक लग गई थी। बौद्ध धर्म का काफी विस्तार हुआ। 


देवानाप्रिय अशोक ने पूरे जम्बूद्विप में लगभग ८४००० हजार स्तुप बनवाये थे जिसमे साची, सारनाथ ईत्यादि थे। पुश्यमित्र शुङ सनातनी वैदिक विचार वाला सेनापति था। वाममार्गी आचरण से प्रजा का आकर्षण भी बौद्ध धर्म से कम हो चुका था। बौद्ध धर्म के प्रभाव से तत्कालीन वैदिक विद्वानों ने ज्ञान परक उपनिषदों को प्रचार का अंग बना लिया। प्राचीन कर्मकांड के स्थान पर ज्ञान और भक्ति- मार्ग का प्रचार ही बौद्ध धर्म का विकल्प सम्भव था। कुमारिल भट्ट और शंकराचार्य जैसे विद्वानों ने मीमांसा और वेदांत जैसे दर्शनों का प्रतिपादन किया। वही बौद्ध धर्म के तत्त्वज्ञान के स्थान पर रामानुज, विष्णु स्वामी वल्लभ आदि वैष्णव सिद्धांतवाले विद्वानों ने भक्ति- मार्ग द्वारा बौद्धों के व्यवहार- धर्म से बढ़कर प्रभावशाली तथा छोटे से छोटे व्यक्ति को अपने भीतर स्थान देने वाला विधान का प्रचारित किया। अनेक हिंदू राजा भी इन 

धर्म- प्रचारकों की सहायतार्थ खडे़ हो गए। इस सबका परिणाम यह हुआ कि जिस प्रकार बौद्ध धर्म अकस्मात् बढ़कर बडा़ बनकर देश भर में छा गया, उसी प्रकार वह निर्बल पड़ने लगा, तो उसकी जडे उखड़ते देर न लगी।


आज बौद्ध धर्म अनेक दूरवर्ती देशों में फैला हुआ है और जिसके अनुयायियों की संख्या विश्व में तीसरे स्थान पर है किन्तु भारत में अधिकांश अन्य धर्म वालों से बहुत कम है। इसका भारत से इस प्रकार लोप हो जाना बड़ा हि दुर्भाग्यजनक हुआ है। लेकिन १४ अक्तुबर १९५६ को दलितो के नेता डा.भीमराव अम्बेड्कर ने हिन्दु धर्म में व्याप्त छूआछुत से तङ आकर अपने लगभग 5 लाख अनुयायियो के साथ भारतीय आर्य बौद्ध धर्म को अपनाकर उसकी उसी जन्मभूमि पर पुनर्जीवित कर दिया। आज महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश एवम देशभर के दलीतों में बौद्ध धर्म बढ़ रहा है।


इस विवेचन से हमे इस निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए कि संसार के सभी प्रमुख धर्म लोगों को निम्न स्तर के जैविक मूल्यों से निकलकर उच्च मूल्यों को प्राप्त करने के उद्देश्य से स्थापित किए गए थे। पारसी, यहूदी, ईसाई, इस्लाम आदि मजहब आज चाहे जिस दशा में हों पर आरंभ में सबने अपने अनुयायियों को जीवन के श्रेष्ठ मुल्यो पर चलाकर उनका कल्याण साधन ही किया था। पर काल- क्रम से उन में भी कुछ व्यक्तियों या समुदाय विशेष की स्वार्थपरता के कारण विकार उत्पन्न हुए है और अब उनका पतन होने लगा है। 


बुद्ध इस बात को समझते थे। इसलिए उन्होंने यह व्यवस्था कर दी है कि प्रत्येक सौ वर्ष पश्चात् संसार भर के बौद्ध प्रतिनिधियों की एक बडी़ सभा की जाए और उसमें अपने धर्म तथा धर्मानुयायियों की दशा पर पूर्ण विचार कर उसमें जो दोष जान पडे़ उनको दूर किया जाए और नवीन समयोपयोगी नियमों को प्रचलित किया जाए।

बौद्ध धर्माचार्यों द्वारा इसी बुद्धिसंगत व्यवस्था पर चलने और रूढि़वादिता से बचे रहने का यह परिणाम हुआ कि बौद्ध धर्म कई सौ वर्ष तक निरंतर बढ़ता रहा। संसार के दूरवर्ती देशों के निवासी आग्रहपूर्वक इस देश में आकर उसकी शिक्षा प्राप्त करके अपने यहाँ उसका प्रचार करते रहे। जीवित और लोक- कल्याण की भावना से अनुप्राणित धर्म का यही लक्षण है कि वह निरर्थक या देश- काल के प्रतिकूल रीति- रिवाजों के पालन का प्राचीनता या परंपरा के नाम पर वह आग्रह नहीं करता। सदा आत्म- निरीक्षण करता रहते रहना चाहिए। इसलिए बुद्ध की सबसे बडी़ शिक्षा यही है कि-मनुष्यों को अपना धार्मिक, सामाजिक आचरण सदैव कल्याणकारी और समयानुकूल नियमों पर आधारित रखना चाहिए। जो समाज, धर्म इस प्रकार अपने दोषों, विकारों को सदैव दूर करते रहते हैं, उनको ही 'जिवित' समझना चाहिए और वे ही संसार में सफलता और उच्च पद प्राप्त करते हैं।


वर्तमान समय में भी हिंदू धर्म को अपनी त्रुटियों को आत्म- निरीक्षण द्वारा सर्वथा त्याग दिया जाना आवश्यक है। अधिकांश लोगों का दृष्टिकोण तो ऐसा सीमित हो गया है कि वे किसी अत्यंत साधारण प्रथा- परंपरा को भी, जो इन्हीं सौ-दो सौ वर्षों में किसी कारणवश प्रचलित हो गई है उसको छोड़ना 'धर्म विरुद्ध समझते' हैं। इस समय वैवाहिक अपव्यय, छुआछूत, चार वर्णों के स्थान पर हजारों जातियाँ, अकर्मण्यता आदि अनेक हानिकारक प्रवृत्तियाँ हिन्दू समाज में घुस गई हैं। पर जैसे ही उनके सुधार की बात उठाई जाती है, लोग 'धर्म के डूबने की पुकार, मचाने लग जाते हैं।

बुद्ध भगवान् के उपदेशों पर ध्यान देकर हम इतना समझ सकते है कि- वास्तविक धर्म आत्मोत्थान और चरित्र- निर्माण में है, न कि सामाजिक लौकिक बाह्य आडम्बर। हम इस तथ्य को समझ लें और परंपरा तथा रुढि़यो के नाम पर जो कूडा़-कबाड़ हमारे समाज में भर गया है उसे साफ कर डालें तो हमारे सब निर्बलताएँ दूर करके प्राचीन काल की तरह हम फिर उन्नति की दौड़ में अन्य जातियों से अग्रगामी बन सकते हैं।

आचार्य स्वामी प्रणवानंद सरस्वती


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