गुरुवार, 10 सितंबर 2020

 दलितों के भगवान विठोबा।।

हम सब दलित है, हरिजन है और हमारे मातापिता है विठोबा।

पंढरी ची वारी   

          आहे माझ्या घरी  ।।

जै जय राम कृष्ण हरि।

सनातन धर्म में शैव और वैष्णव 2 आध्यात्मिक परंपरायें चलती है। शैव शिव जी को मानते है और वैष्णव विष्णु को। दोन्हों परंपरायें महान; सभ्य; धर्मनिष्ठ और मानवीय है। 

दोन्हों का मूल वेद है। दोन्हों परंपराओं में  जातीय कट्टरपन; धार्मिक  अंधविश्वास ; भाषीय अथवा प्रांतीय भेदभाव नही है। फिर भी दोन्हों साम्प्रदायि लोगों में स्व वर्चस्व की नोकझोक होती रहती है -शिव बड़ा की विष्णु वह भी प्रेम से।।

इन्हीं में एक  क्रांन्तिकारी संप्रदाय ने जन्म लिया-वारकरी सम्प्रदाय।

वैदिक व्यवस्था के विद्वेष पूर्ण संक्रमण काल में इस संप्रदाय की करीब 700 वर्ष पहले नीव पड़ी। धार्मिक भेदभाव पूर्ण व्यवहार के कारण अधिकतर लोग अपनी वैदिक  पहचान और धार्मिकता खोते जा रहे थे। लोग धार्मिक; सामाजिक एवँ राजनैतिक स्तरपर पतित हो चुके थे।

लोग अपनी संस्कृत भाषा; भूषा; रहनसहन खोते जा रहे थे। हमारी वैदिक व्यवस्था और पहचान भी नष्ट होने की ओर थी। 

ऐसे सांस्कृतिक पतन के अंधकार युग में लोगों को चाहिए था प्रेम; सर्व बंधुत्व; दया; क्षमा के साथ सह अस्तिव की धार्मिक स्वतंत्रता, जिसमें सब को मिले सामाजिक; धार्मिक समान अवसर। 

इस कमी को पूरा करने के लिए ही जन्म लिया वारकरी संप्रदाय ने। यह मूल रूप से वैदिक है और सर्वजन हिताय सर्व जन सुखाय का काम करता है। यह समत्व; दया; विनम्रता; समर्पण और धार्मिक समान अवसर पर आधारित है।

विठोबा दलितों के ही भगवान  है। हम सब दलित है और वे ही हम सब के पावन मातापिता है।।

इस सम्प्रदाय का सिद्धांत है जड़- चेतन सर्व जगत में एक भगवदीय सत्ता का वास है- आप उस को विठ्ठल; हरी; विष्णु; शिव आदि नामों से पुकार सकते है। हरी हरा भेद नाही। नका करू वाद।।विठ्ठल जली स्थली भरला। सब के साथ समानरूप से अच्छा व्यवहार कीजिये।

संत तुकाराम जी ने तो स्पष्ट घोषणा कर दी थी- वेदों का अर्थ तो हमे ही पता है; बाकि लोग तो केवल उसका बोझा ढोते है- वेदा चा तो अर्थ हमासाची ठावा। इतरानी वहवा भार माथा। 

इसके मूल पुरुष थे संत नामदेव महाराज दर्जी; संत ज्ञानेश्वर महाराज; संत चोखोबा महार; संत तुकाराम महाराज कुनबी; हैबतराव बाबा आदि। इस संप्रदाय में सभी जातियों के सभी वर्णीय संत हुए है। इन में न कोई छोटा है न बड़ा होता है। 

सभी वर्णों के लोग एक जगह बैठकर भोजन करते है; भजन करते है; कीर्तन करते है- नामदेव तुकाराम तुकाराम तुकाराम। 

वे नियमित पंढरी की वारी करते है-आळंदी से पंढरपुर। इसीलिए इन्हें वारकरी कहा जाता है। वारी माने नियमित रूप से विठ्ठल भगवान् के दर्शन के लिए पंढरपुर की वाहन से अथवा पैदल यात्रा करना। यह पदयात्रा 21 दिन चलती है। इसमें पैदल चलनेवाले करीब 2 लाख वैष्णव होते है। यह यात्रा आषाढ़ी एकादशी को पंढरपुर पंहुच कर विराम लेती है।     

माथे पर चंदन का तिलक; गले में तुलसी की माला; हाथ में वीणा और करताल; कंदे पर भगवी पताका; हृदय में पवित्र प्रेम और मुख से हरिनाम गजर यही तो वारकरी संप्रदाय का स्वरुप है। 

विठ्ठल विठ्ठल विठ्ठला। मेरे विठ्ठल पांडुरंगा। 

महामंडलेश्वर आचार्य

स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती-वृन्दावन

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शनिवार, 5 सितंबर 2020

 वनवासी राम की  समता, न्याय और बंधुभाव

किसी ने कहा- आर्य राम ने अनार्य बालि का छिपकर वध किया था.

मान लीजिये कि बालि अनार्य था तो फिर सुग्रीव क्या था? वो भी अनार्य था. दो अनार्य भाइयों के बीच किसी गलतफहमी के चलते झगड़ा था, झगड़े में बड़े भाई ने छोटे भाई को न सिर्फ मृत्यदंड की सजा दी थी बल्कि उसकी पत्नी को बलात अपने कब्जे में कर रखा था और उसके डर से सुग्रीव मारा-मारा फिर रहा था. त्रिलोक के अंदर बालि के भय से किसी के अंदर ये साहस नहीं था कि वो सुग्रीव को न्याय दिला सके. 

राम ने सुग्रीव को न्याय दिलाने का संकल्प किया. बालि का वध किया. अब बालि के वध के बाद आर्य राम ने क्या किया? राम ने राज्य पर स्वयं कब्ज़ा नहीं किया बल्कि उस पर उसी अनार्य सुग्रीव को प्रतिष्ठित किया. सुग्रीव की पत्नी रुमा को मुक्त कराकर राम ने उसे अपने अधीन नहीं किया बल्कि उसे ससम्मान सुग्रीव को सौंप दिया. बालि के परिजनों के साथ भी अन्याय न हो इसलिये राम ने उसकी पत्नी तारा को राज्य की मुख्य पटरानी के पद पर सुशोभित किया और प्रधान सेनापति के पद पर उसके बेटे अंगद को बिठाया. 

उस राम को आप सवर्ण कहिये, क्षत्रिय कहिये, मनुवादी कहिये या जो भी कहिये पर सत्य यही है कि राम ने राज्य पर कब्ज़ा नहीं किया, राज्य ने किसी संपत्ति को अपने उपयोग में नहीं लिया, रूमा या तारा को प्रताड़ित नहीं किया और न ही बालि के बेटे के साथ अन्याय होने दिया. राम आपके लिये सवर्ण, क्षत्रिय या मनुवादी होंगें पर दुनिया के लिये राम न्याय की मूर्ति थे. 

अगर बालि अनार्य थे तो फिर हनुमान क्या थे? वो भी अनार्य थे, अब आप सब मुझे बतायें कि आपके अनुसार भारतवर्ष का कौन सा ऐसा आर्य है जिसके यहाँ देवता रूप में हनुमान पूजित नहीं हैं? हाँ, खुद को अनार्य कहने वाले इन साहब के यहाँ ही हनुमान पूजित नहीं होंगे. 

समाज के निचली पायदान पर बैठी शबरी माता के जूठे बेर खाने वाले श्रीराम के सखाओं में वानर वीर सुग्रीव थे तो निषाद राज केवट भी थे, 

हमारे महान हिन्दू समाज और भारत देश पर दुर्भाग्य की काली छाया उस दिन से पड़नी आरंभ हुई जब विस्तारवाद की आकांक्षा वाले मजहबों का यहाँ पर पदार्पण हुआ और इस दुर्भाग्य का अंत भी तभी होगा जब हम इन विस्तारवादियों की चाल में नहीं आयेंगे.

सन्देश यही है, वंचित समाज से जुड़िये, उनके पास जाइये, उनसे दर्द सांझा करिए, उन्हें सत्य का ज्ञान कराइए. उनके अंदर सदियों से सिर्फ जहर और अलगाव ही भरा गया है. उनके अंदर की किसी शंका का समाधान करने उनके पास हमसे पहले ईसा वाले और इस्लाम वाले पहुँच जाते हैं. अब हमारी जिम्मेदारी है कि उनको बताइए कि हमारे हिन्दू समाज में जातियों का भेद नहीं है।

भगवान हम सब के है और हम सब समान है , सनातन है, हिन्दू है.

शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

दलितों के भगवान विठ्ठोबा पंढरपुर

 दलितों के भगवान विठोबा।।

हम सब दलित है, हरिजन है और हमारे मातापिता है विठोबा।

पंढरी ची वारी   

          आहे माझ्या घरी  ।।

जै जय राम कृष्ण हरि।

सनातन धर्म में शैव और वैष्णव 2 आध्यात्मिक परंपरायें चलती है। शैव शिव जी को मानते है और वैष्णव विष्णु को। दोन्हों परंपरायें महान; सभ्य; धर्मनिष्ठ और मानवीय है। 

दोन्हों का मूल वेद है। दोन्हों परंपराओं में  जातीय कट्टरपन; धार्मिक  अंधविश्वास ; भाषीय अथवा प्रांतीय भेदभाव नही है। फिर भी दोन्हों साम्प्रदायि लोगों में स्व वर्चस्व की नोकझोक होती रहती है -शिव बड़ा की विष्णु वह भी प्रेम से।।

इन्हीं में एक  क्रांन्तिकारी संप्रदाय ने जन्म लिया-वारकरी सम्प्रदाय।

वैदिक व्यवस्था के विद्वेष पूर्ण संक्रमण काल में इस संप्रदाय की करीब 700 वर्ष पहले नीव पड़ी। धार्मिक भेदभाव पूर्ण व्यवहार के कारण अधिकतर लोग अपनी वैदिक  पहचान और धार्मिकता खोते जा रहे थे। लोग धार्मिक; सामाजिक एवँ राजनैतिक स्तरपर पतित हो चुके थे।

लोग अपनी संस्कृत भाषा; भूषा; रहनसहन खोते जा रहे थे। हमारी वैदिक व्यवस्था और पहचान भी नष्ट होने की ओर थी।

ऐसे सांस्कृतिक पतन के अंधकार युग में लोगों को चाहिए था प्रेम; सर्व बंधुत्व; दया; क्षमा के साथ सह अस्तिव की धार्मिक स्वतंत्रता, जिसमें सब को मिले सामाजिक; धार्मिक समान अवसर। 

इस कमी को पूरा करने के लिए ही जन्म लिया वारकरी संप्रदाय ने। यह मूल रूप से वैदिक है और सर्वजन हिताय सर्व जन सुखाय का काम करता है। यह समत्व; दया; विनम्रता; समर्पण और धार्मिक समान अवसर पर आधारित है।

विठोबा दलितों के ही भगवान  है। हम सब दलित है और वे ही हम सब के पावन मातापिता है।।

इस सम्प्रदाय का सिद्धांत है जड़- चेतन सर्व जगत में एक भगवदीय सत्ता का वास है- आप उस को विठ्ठल; हरी; विष्णु; शिव आदि नामों से पुकार सकते है। हरी हरा भेद नाही। नका करू वाद।।विठ्ठल जली स्थली भरला। सब के साथ समानरूप से अच्छा व्यवहार कीजिये।

संत तुकाराम जी ने तो स्पष्ट घोषणा कर दी थी- वेदों का अर्थ तो हमे ही पता है; बाकि लोग तो केवल उसका बोझा ढोते है- वेदा चा तो अर्थ हमासाची ठावा। इतरानी वहवा भार माथा। 

इसके मूल पुरुष थे संत नामदेव महाराज दर्जी; संत ज्ञानेश्वर महाराज; संत चोखोबा महार; संत तुकाराम महाराज कुनबी; हैबतराव बाबा आदि। इस संप्रदाय में सभी जातियों के सभी वर्णीय संत हुए है। इन में न कोई छोटा है न बड़ा होता है।

सभी वर्णों के लोग एक जगह बैठकर भोजन करते है; भजन करते है; कीर्तन करते है- नामदेव तुकाराम तुकाराम तुकाराम।  

वे नियमित पंढरी की वारी करते है-आळंदी से पंढरपुर। इसीलिए इन्हें वारकरी कहा जाता है। वारी माने नियमित रूप से विठ्ठल भगवान् के दर्शन के लिए पंढरपुर की वाहन से अथवा पैदल यात्रा करना। यह पदयात्रा 21 दिन चलती है। इसमें पैदल चलनेवाले करीब 2 लाख वैष्णव होते है। यह यात्रा आषाढ़ी एकादशी को पंढरपुर पंहुच कर विराम लेती है।

माथे पर चंदन का तिलक; गले में तुलसी की माला; हाथ में वीणा और करताल; कंदे पर भगवी पताका; हृदय में पवित्र प्रेम और मुख से हरिनाम गजर यही तो वारकरी संप्रदाय का स्वरुप है। 

विठ्ठल विठ्ठल विठ्ठला। मेरे विठ्ठल पांडुरंगा। 

महामंडलेश्वर आचार्य

स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती-वृन्दावन

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भक्त जरा भील पर प्रभु की कृपा

 भक्त दरबार चंद्रवंशी भील जरा पर प्रभु की कृपा और प्रभु का स्वधाम गमन।

अब के गुजरात में नारायण सरोवर के पास प्रभास नाम का आदि सनातनीयों का एक महान तीर्थ है। वहीं पर पवित्र जंगल में एक दरबार चंद्रवंशी जरा नाम का भील अपने परिवार के साथ रहता था। वह प्रकृति का आदि धर्म सनातन का निष्ठावान व्यक्ति था। सभी भील चंद्र वंशी और सूर्यवंशी क्षत्रिय है। वे शस्त्र और शास्त्र धारी है। वे शास्त्र भूल गए, शस्त्र आज भी है।

वह तीर्थ की पवित्र भूमि प्रभास के वन में स्वछंद विचरण करता और खेती, कंदमूल, फल, शिकार कर अपनी आजीविका चलाता था।वह नित्य नारायण सरोवर में स्नान कर शिव जी पर जल चढ़ाता और श्रद्धापूर्वक जप करता था ॐ नमः शिवाय। 

द्वारका वहां से बहुत दूर नही थी। वह भी जन समूह के साथ सहयोग और दर्शन के लिए द्वारका चला जाता। वह भगवान श्री कृष्ण का कृपा पात्र था। भगवान भी अपने परिवार के साथ प्रभास तीर्थ में स्नान एवं पूजा पाठ करने आ जाया करते थे तो अवश्य उन्हें अपने पास बुलाने का संदेश भेजकर बुला लेते।

द्वारकाधीश भगवान के महा प्रयाण के समय सभी यदुवंशी प्रभास में ही थे। पर धर्मानुष्ठान के बाद सभी यदुवंशी यादव आपसी कलह में मारे गए। उस समय अकेले भगवान ही शेष थे। फिर भी वे प्रसन्न, आत्म रूप में स्थिर थे। वे एक पीपल के वृक्ष को अपनी पीठ टिकाकर बैठे थे। घना जंगल था। जंगल में विभिन्न प्रकार के हिसंक जीव जंतु थे। भगवान श्री कृष्ण को उस एकाकी समय में अपने प्रिय भक्त जरा भील की स्मृति हो आयी। वे अपने भक्त का अंतिम सान्निध्य पाना और देना चाहते थे। उन्हें अपने अंतिम कार्य स्वधाम गमन में सहयोगी बनाना चाहते थे। भागवत संकल्प अद्भुत है। भक्त जरा भील के हृदय में भी वह प्रभु का संकल्प साकार हो उठा।

शिकार के निमित्त से वह चल पड़ा। आज उसको भी प्रभु की याद आ रही थी। शिकार तो एक बहाना था, प्रभु की कृपा ही प्रमुख थी। शिकार ढूंढते ढूंढते वह वहाँ पहुंच गया जहां पर प्रभु विराज रहे थे। अचानक वृक्षों के झुरमुट में उनको एक हिरण दिखाई दिया। उन्होंने तन, मन एकाग्र कर तीर चला दिया। वह अति हर्ष से भर दौड़कर शिकार के पास पहुंच गया। लेकिन यह क्या? उन्होंने देखा ये तो द्वारकाधीश भगवान श्रीकृष्ण हमारे अन्नदाता, हमारे सम्राट! जरा को प्रभु के चरण में हिरन का भ्रम हो गया था।

जरा भील प्रभु के चरण पकड़कर रोने लगा- भगवन! क्षमा करो। जरा भील बहुत दुःखी था। द्वारकाधीश के पैर में तीर लग चुका था। पर द्वारकाधीश कृष्ण तो बड़े ही दयालु। उन्होंने जरा के शिर पर हाथ रखकर अभयदान देते हुए  कहा- मा भैष्ठ जरा मुत्तिष्ठ त्वया कार्यं कृतं ही मे। जरा मेरे प्रिय बंधु! उठो, डरो नही। तुमने मेरी इच्छा से ही मुझे तीर मारा है। मैं भी अब अपना अवतार कार्य पूर्ण करना चाहता हूं। तुमने इस मेरे कार्यं में मेरी मदद की है। 

मैं तुम्हे इस पवित्र ईश्वरीय कार्य के लिए मुक्ति का वरदान देता हूँ। तुम और तुम्हारे जाति के लोग मुझे सदा प्रिय बने रहेंगे। मांगो और क्या चाहिये। जरा ने कहा- प्रभो! आप की अविरल भक्ति। भगवान ने जरा के शिर पर हाथ रखा और हृदय से लगाकर अपना ज्ञान जरा के हृदय में प्रवेश करा दिया। भील कुल धन्य हो गया।

हाथ जोड़कर जरा भील प्रभु के चरणों में बैठ गया। उनको प्रभु की अविरल भक्ति प्राप्त हो गई।

उसी समय उद्धव और मैत्रेय जी प्रभु को ढूंढते ढूंढते वहां पहुंच गए। वे प्रभु के चरणों में नमन कर बैठ गए। प्रभु उनपर बहुत प्रसन्न थे। द्वारकाधीश भगवान के पास इस समय कोई नही था। केवल प्रभु के तीन शिष्य थे- मैत्रेय, उद्धव और भक्त जरा।

देवता गण आकाश में स्थित होकर प्रभु के स्वधाम गमन देखने की प्रतीक्षा कर रहे थे। लेकिन वे भी प्रभु का स्वधाम गमन देख नही पाए-अविज्ञात गतिं कृष्ण। उस समय आकाश में प्रकाश प्रगट हुआ। सब की आँखे बंद हो गयी। जब उन्होंने आंखे खोलकर प्रभु का स्वधाम गमन हो चुका था।

वे तीनों प्रभु के विरह में डूब गए। वे परस्पर प्रभु गुण गान करने लगे। फिर एक दूसरे को सांत्वना देते हुए अपने अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान किया। 

लेकिन भक्त जरा भील प्रभु का विरह सहन नही कर सका। वह भी उद्धव जी महाराज के पीछे बद्रीनाथ चल पड़ा। उन्होंने हिमालय बद्रीनाथ में अलकनंदा के पवित्र तट पर बहुत दिनों तक तप किया। उन्हें अनेक सिद्धियां प्राप्त हुई लेकिन उन्होंने प्रभु को छोड़  किसी को महत्व नही दिया। 

मृत्यु का समय आने पर प्रभु का स्मरण करते हुए भक्त जरा भील ने शरीर का त्याग कर प्रभु को प्राप्त कर लिया।

स्वामी प्रणवानंद सरस्वती- मुम्बई


महाशिव रात्री का महातपस्वी आदि सनातन गुरुदर्श भील

 महाशिवरात्री का आदि तपस्वी आदि सनातन गुरुदर्श भील-


हिमालय की पवित्र तपोभूमि हरिद्वार में बिल्व वन में एक वनवासी भील सपरिवार निवास करता था। उसका नाम था गुरुदर्श।


वह गंगा के पावन तट पर तपस्वियों के मध्य में सघन वन में रहकर अपने परिवार का भरण पोषण करता था। उसकी आजीविका थी कंद, मूल, फल तथा शिकार। 


आज उसके घर में खाने को कुछ नही था। वह वन से वन्य आहार लेने के लिए हाथ में हसिया, फरसा और धनुष बाण लेकर निकल पड़ा। कुछ आहार मिलें तभी घर के बाल बच्चे पत्नी भोजन करेंगे, नही तो सभी भूखे सोएंगे। इसलिए वह तन्मयता से भोजन खोजने लगा।


उन्होंने दिनभर बहुत ढूंढा लेकिन शिकार अथवा कंद, मूल,फल नही मिले। दिन ढल चुका था। रात का आगमन हो गया था। रात ने वन को अंधेरी चादर में ढक दिया। परन्तु वह हताश नही हुआ। उन्होंने सोचा रात में अवश्य कोई न कोई खरगोश, हिरन अथवा जंगली सुअर मिलेगा।


वह बिल्व वन में एक छोटे से जलाशय के किनारे घने बिल्व वृक्ष पर बैठ गया। उसके हाथ मे तीर, कमान और पीठ पर पर तूणीर था, हाथ में रस्सी से बंधा एक पानी का पात्र भी। कमर में तथा माथे पर एक गमछा लपेट रखा था। 


वह बहुत एकाग्रता से शिकार की प्रतीक्षा करने लगा।


दैवयोग से बिल्व वृक्ष के नीचे एक शिव लिंग था। वह सिद्ध पुरुषों द्वारा सेवित सिद्ध शिव लिंग था। पर अंधकार और पत्तों में छिपा होने के कारण दिखाई नही दे रहा था। 


शिव की महिमा अद्भुत है। लोटा हिलने से थोड़ा सा जल शिव लिंग पर गिरा। शिकार को देखने के लिए आंखों के सामने के बिल्व पत्र हटाते हुए तोड़कर नीचे गिरा दिये। अनजाने में बिल्व पत्र भी शिवलिंग पर गिरे। गुरु प्रिय का चित्त कुछ शुद्ध हो गया और अनायास मुख से निकला- ॐनम: शिवाय। 


अनजाने में चढ़ा जल, बिल्वपत्र और  शिव मंत्र के जप से गुरु प्रिय भील की प्रथम प्रहर की पूजा पूर्ण हो गयी।


रात का प्रथम प्रहर व्यतीत होने के पहले एक मादा हिरण जलाशय पर पानी पीने के लिए आयी | उसे देखकर भील ने धनुष पर बाण चढ़ाया। वह बान छोड़ने ही वाला था। लेकिन एक अद्भुत घटना घटी। शिव लिंग के प्रभाव से हिरणी में समझ और बोलने की शक्ति का उदय हो गया। 


हिरनी ने पत्तों की खड़खड़ाहट सुनकर ऊपर की ओर देखा और वह समझ गयी, यह  मुझे मार देगा।  


हिरनी ने भयभीत होकर शिकारी से  कांपते स्वर में कहा- ‘मुझे मत मारो। शिकारी ने कहा- वह और उसका परिवार भूखा है इसलिए वह उसको नहीं छोडेगा। हिरणी ने वादा किया कि वह अपने बच्चों को अपने स्वामी को सौंप कर लौट आयेगी। तब वह उसका शिकार कर ले। 


हिरनी ने शिव की कृपा से शिकारी को विश्वास दिलाया कि जैसे सत्य पर ही धरती टिकी है। सत्य से ही समुद्र मर्यादा में रहता है। सत्य से ही झरनों से जल-धाराएँ गिरा करती हैं। वैसे ही वह भी सत्य बोल रही है।

शिकारी को शिव जी की कृपा से उस की बात पर विश्वास हुआ और दया का भाव भी उसमें उदित हुआ। उसने हिरनी को कहा- ‘ तुम जल्दी लौट आओ' उस ने हिरनी को जाने दिया ।


द्वितीय प्रहर का आरंभ हो गया।वह हिरनी के वापस आने की प्रतीक्षा करने लगा।

थोड़े समय बाद एक और हिरनी वहां पानी पीने आयी। शिकारी सावधान हो गया। तीर साधने लगा और ऐसा करते हुए, उसके हाथ के धक्के से पहले की ही तरह थोडा जल और कुछ बेलपत्र नीचे शिवलिंग पर जा गिरे और मुख से निकला ॐ नमः शिवाय। अनायास ही शिकारी की द्वितीय प्रहर की पूजा भी हो गयी। इस हिरनी ने भी भयभीत हो कर, शिकारी से जीवनदान की याचना की। शिव लिंग के प्रभाव से हिरनी ने उसे लौट आने का वचन दिया और समझाया कि जो वचन दे कर पलट जाता है, उसका अपने जीवन में संचित पुण्य नष्ट हो जाता है। उस शिकारी ने पहले की तरह हिरनी के इस वचन पर विश्वास कर उसे जाने दिया।

अब  इस चिंता से व्याकुल भी हो रहा था कि शायद ही उन में से कोई हिरन लौट कर आये।अब मेरे परिवार का क्या होगा।


तृतीय प्रहर का आरंभ हो गया। इतने में ही उसने जल की ओर आते हुए एक हिरण को देखा। उसे देखकर शिकारी अति प्रसन्न हुआ। अब फिर धनुष पर बाण चढाने लगा, आश्चर्य वैसे ही उसके हाथ हिलने से जल और बिल्व पत्र शिव लिंग पर गिरे और मुख से निकला ॐ नमः शिवाय। बस उसकी तीसरे प्रहर की पूजा भी स्वतः ही संपन्न हो गयी। 


पत्तों के गिरने की आवाज़ से उसने शिकारी को देखा और पूछा –“ तुम क्या करना चाहते हो ?” वह बोला-“अपने कुटुंब को भोजन देने के लिए तुम्हारा वध करूंगा ” । शिव लिंग के सान्निध्य से इस हिरण का भी चित्त शुद्ध हो गया। वह मृग प्रसन्न हो कर कहने लगा– “मैं धन्य हूँ कि मेरा यह शरीर किसी के काम आए, परोपकार से मेरा जीवन सफल हो जाये। पर कृपा कर अभी मुझे जाने दीजिये, मैं अपने बच्चों को उनकी माता के हाथ में सौंप कर, उन सबको धीरज बंधा कर यहाँ लौट आऊंगा । ” शिकारी का ह्रदय, उसके पापपुंज नष्ट हो जाने से अब और शुद्ध हो गया।इसलिए वह विनयपूर्वक बोला –‘ जो-जो यहाँ आये, सभी बातें बनाकर चले गये और अभी तक नहीं लौटे, यदि तुम भी झूठ बोलकर चले जाना चाहते हो तो चले जाओ। अब मेरे परिजन प्रभु को समर्पित। 


इस हिरन ने भी यह कहते हुए उसे अपने सत्य बोलने का विश्वास दिलाया कि यदि वह लौटकर न आये; तो उसे वह पाप लगे जो उसे लगा करता है जो सामर्थ्य रहते हुए भी दूसरे का उपकार नहीं करता। शिकारी ने उसे भी यह कहकर जाने दिया कि ‘शीघ्र लौट आना ।


रात्रि का अंतिम चतुर्थ प्रहर शुरू होते ही शिकारी के हर्ष की सीमा नही रही क्योंकि उसने उन सब हिरन-हिरनियों को अपने बच्चों सहित एक साथ आते देख लिया। उन्हें देखते ही उसने अपने धनुष पर बाण रखा । पहले की ही तरह उसके हिलने से लोटे का जल शिवलिंग पर गिरा। सामने के बिल्व पत्र तोड़कर नीचे गिरा दिए। वह भी शिव लिंग पर गिरे। मुख से निकला ॐ नमः शिवाय। उसकी चौथे प्रहर की पूजा भी  संपन्न हो गयी।


उस शिकारी के शिव कृपा से सभी पाप भस्म हो गये। इसलिए वह सोचने लगा-‘ओह ये पशु धन्य हैं जो ज्ञानहीन हो कर भी अपने शरीर से परोपकार करना चाहते हैं, लेकिन धिक्कार है मेरे जीवन को कि मैं इनको मारकर खाना चाहता हूँ। मैं अनेक प्रकार से शिकार आदि से अपने परिवार का पालन करता रहा हूँ।अब  मैं कभी हिंसा नही करूंगा। सत्य और ईमानदारी से परिश्रम कर वन्य कंद, मूल, फल आदि से जीवन यापन करूंगा। 


वह बिल्व वृक्ष से नीचे उतर आया। बान को तूणीर में रखा और धनुष बाण गले में टांग लिया। उन्होंने हाथ जोड़कर मृग समूह को कहा-तुम सभी धन्य हो, प्रभु की कृपा से तुम्ह में सत्य और परोपकार की भावना है। मैंने भी तुम से यह भावना सीखी है। आज से तुम मेरे लिए गुरुतुल्य हो। उन्होंने सभी को अपनी वचन बद्धता से मुक्त कर उन्हें वन में मुक्त जीवन जीने का अभयदान दे दिया। वे सभी हिरन गुरु प्रिय भील को धन्यवाद देते हुए जलपान कर वन में चले गए।


गुरु प्रिय भील ने अपना नाम सार्थक कर लिया। भगवान बाबादेव आदिदेव महादेव शिव ने प्रसन्न हो कर तत्काल उसे अपने दिव्य स्वरूप के दर्शन देकर उसे भक्ति के साथ सुख-समृद्धि का वरदान दिया। उनको भगवान शिव जी ने कहा- वत्स!तुम गूढ़, गुह्य, गोपनीय साधना को जानने वाले तथा मेरे को प्रिय हो इसलिए आज के बाद तुम को लोग गुह्य अथवा गुरु प्रिय नाम से जानेंगे। 


यही है शिव की महा शिवरात्रि की कथा, जिसका गान सम्पूर्ण हिन्दू समूह करता है।

ॐ जय आदि सनातन हिन्दू ।


म.म.स्वामी प्रणवानंद सरस्वती


पूरी जगन्नाथ महाप्रभु के प्रथम पुजारी-भील राजवंश क्षत्रिय विश्वावसु

 पूरी जगन्नाथ महा प्रभु के प्रथम पुजारी- भील क्षत्रिय दरबार विश्वावसु-



पुरी का श्री जगन्नाथ मंदिर हिन्दू मंदिर है, यह भगवान जगन्नाथ महाप्रभु श्रीकृष्ण को समर्पित है।


यह भारत के ओडिशा राज्य के तटवर्ती शहर पुरी में है। जगन्नाथ शब्द का अर्थ है जगत के स्वामी। इस पूरी में जगत के नाथ जगन्नाथ महाप्रभु निवास करते है इसलिए इस नगरी को जगन्नाथपुरी कहते है।


इस मंदिर को हिन्दुओं के चार धाम में एक गिना जाता है। यह वैष्णव, शैव तथा चारों वर्ण के सभी लोगों के लिए समान है। इसके चार दिशाओं के चार द्वार चारों युगों में चारो वर्णों के लिए भगवान की समानता का उपदेश करते है।


भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण सब के लिए समान है।

इस मंदिर का वार्षिक रथ यात्रा उत्सव भी प्रसिद्ध है। इस में सम्पूर्ण विश्व के लोग आते है। इसमें मंदिर के तीनों मुख्य देवता, भगवान जगन्नाथ महा प्रभु, उनके बड़े भ्राता बलभद्र और भगिनी सुभद्रा तीनों, तीन अलग-अलग भव्य और सुसज्जित रथों में विराजमान होकर नगर भ्रमण पर निकलते हैं। 


पूरी लोकगाथा और पुराणों से इसके मूल में एक बड़ी सुन्दर कथा आती है। गुजरात प्रभास क्षेत्र में सभी यदुवंशी यादव आपसी युद्ध में मारे गए। उस मे श्रीकृष्ण भी युद्ध में घायल हो गए। बलराम जी ने भी शरीर छोड़ा। उस युद्ध में यदुवंश तथा अन्य  वंश के बहुत से क्षत्रिय वीर बचे थे। उन्होंने श्रीकृष्ण को लेकर जलमार्ग से उत्कल की यात्रा की। आज के पूरी क्षेत्र पर  श्रीकृष्ण के पुत्र अनिरुद्ध शासन  था। जगन्नाथ पुरी में श्रीकृष्ण की मौसी भी रहती थी। यदुवंशी यादवों के आपसी कलह से उत्पन्न विनाश के उपरांत तथा देहत्याग के पूर्व कुछ समय श्री कृष्ण पूरी में रहे थे।


 प्रभु श्री कृष्ण अस्वस्थ थे। उन्हें खासी, जुखाम और बुखार भी था। वैद्यो ने उनका उपचार किया। वे अपने निवास से रथ के द्वारा मौसी तथा अन्य नागरिकों को मिलने निकलते थे। आज भी उसी स्मृति में रथ यात्रा निकलती है। भगवान् श्री कृष्ण ने अंत में अपना शरीर छोड़ दिया। उनका अंत्येष्टि संस्कार भी हुआ। आज उसी स्थान पर लकड़ी के विग्रह को विसर्जित किया जाता है।

       पूरी की लोग गाथा के अनुसार श्रीकृष्ण के अंत्येष्टि संस्कार में शरीर के सभी अंग जल गए परन्तु उनके हृदय का अंश नहीं जला। उसको समुद्र में प्रवाहित किया गया। परन्तु एक आश्चर्य की घटना घटि वह जल पर तरंगित  ह्रदय पिंड नील ज्योति में बदल गया। प्रभु के स्वजन मित्रों में एक भील राजा  भी वहां पर उपस्थित थे। उन्होंने प्रार्थना पूर्वक उस पिंड को बाहर निकाला। वह भगवदीय नील हृदय पिंड विश्वावसु पाकर धन्य हो गए।


राजा विश्वावसु नील पर्वत पर रहा करते थे। वही पर उनका छोटा सा राज्य था। वे भील राजा न्यायप्रिय, कृष्ण भक्त तथा यदुकुल के चंद्र वंशी शाखा के क्षत्रिय थे। सभी भील आदिवासी करीब इसी शाखा के खत्री है। उनका भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में अत्यधिक अनुराग था। उस समय वे भी वहां पर शोकाकुल अवस्था में प्रभु के विरह थे। कुछ परम्पराओं का कथन है कि वही भक्त जरा भील प्रभु की सेवा में रहा। और वही प्रभु की कृपा से जगन्नाथ महा प्रभु का प्रथम पुजारी बना।


 वे उस दिव्य नील भगवद विग्रह को लेकर अपने घर आ गए। उनका नाम रखा नील माधव। वे नील पर्वत की एक गुफा में नील माघव के नाम से पुजे जाने लगे। नील माधव भील राजा विश्वावसु के आराध्य देव थे। वर्षों तक उन्होंने महाप्रभु की नील माधव के रूप में पूजा की।


उसके अनंतर भगवान ने प्रभु का दारू मयि विग्रह बनाकर पूजा करने का आदेश दिया। तब से दारू विग्रह बनाकर उनके हृदय में नीलमाधव प्रभु को स्थापित किया जाता है। उसको ब्रह्म संबंध कहते। हर 12 वर्ष में एक बार नया विग्रह बनता है  पुराने विग्रह को विसर्जित कर नए की स्थापना की जाती है। परंतु वही पुराना हृदय में स्थित प्रभु का हृदय अंश नील माधव जी को नए विग्रह में स्थापित किया जाता है। यह क्रिया बड़ी गोपनीय तथा पारम्परिक लोगों द्वारा की जाती है।


म.म.आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी प्रणवानंद सरस्वती- वृन्दावन

 कृष्ण भोगी नही, योगी थे।


भागवत नही, महाभारत से कृष्ण की महिमा अधिक मालूम पड़ती है।


भगवान कृष्ण जी का सत्यस्वरूप जानने के लिए महा भारत  ग्रंथ को पढ़ना चाहिए। महाभारत ग्रंथ के बिना कृष्ण के यथार्थ स्वरूप को समझना कठिन है।


आइए जानते हैं कि श्रीकृष्ण जी के ब्रह्मचर्य के विषय में महाभारत क्या कहती है ।।


महाभारत का युद्ध होने से पहले जब अश्वत्थामा श्रीकृष्ण जी से सुदर्शन चक्र मांगने आता है तो श्री कृष्ण जी  ने अश्वत्थामा से कहा कि ठीक है ले जाओ ये चक्र परंतु अश्वत्थामा से वो चक्र ले जाना या उठाना तो दूर रहा,वो चक्र हिला तक नही और फिर श्री कृष्ण जी सौप्तिक पर्व के 12 वें अध्याय में उससे कहते हैं कि


अश्वत्थामा को कृष्ण कहते है- मैंने संदीपनी ऋषि के आश्रम में 48 वर्ष तक शिक्षा ग्रहण की थी और उसके बाद जब रुक्मणी से विवाह किया। विवाह के बाद भी बारह वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन किया क्योंकि रुक्मणी को मेरे समान बलशाली पुत्र चाहिए था ।  ऐसा मत सोचिए कि कृष्ण द्वारका नगरी बनाकर भोग विलास में लग गये। वे भारत भूमि अत्याचारी शासकों से मुक्त करने के लिए प्रयास रत थे। 


श्री कृष्ण जी कहते हैं कि


ब्रह्मचर्यं महद् घोरं तीर्त्त्वा द्वादशवार्षिकम् ।

हिमवत्पार्श्वमास्थाय यो मया तपसार्जितः ।।31।।

समानव्रतचारिण्यां रुक्मिण्यां योsन्वजायत ।

सनत्कुमारस्तेजस्वी प्रद्युम्नो नाम में सुतः ।।32।।


अर्थ:- मैंने 12 वर्ष तक रुक्मिणी के साथ हिमालय में ठहरकर महान् घोर ब्रह्मचर्य का पालन करके सनत्कुमार के समान तेजस्वी प्रद्युम्न नाम के पुत्र को प्राप्त किया था ।।


विवाह के पश्चात्  भी 12 वर्ष तक घोर ब्रह्मचर्य को धारण करना उनके संयम का महान् उदाहरण है। कृष्ण भोगी नही, योगी थे।


श्री कृष्ण जी के तमाम भक्तों से अनुरोध है कि ऐसे महान योगी,ब्रह्मचारी पुरुष की तरह हम भी जीवन जिये,वही श्री कृष्ण जी की असली पूजा है।।


योगेश्वर श्री कृष्ण महाराज की जय

सत्य सनातन वैदिक धर्म की जय।


जय आर्य जय आर्यावर्त्त


जनमाष्टमी की हार्दिक शुभ कामनाएं।