शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

भक्त जरा भील पर प्रभु की कृपा

 भक्त दरबार चंद्रवंशी भील जरा पर प्रभु की कृपा और प्रभु का स्वधाम गमन।

अब के गुजरात में नारायण सरोवर के पास प्रभास नाम का आदि सनातनीयों का एक महान तीर्थ है। वहीं पर पवित्र जंगल में एक दरबार चंद्रवंशी जरा नाम का भील अपने परिवार के साथ रहता था। वह प्रकृति का आदि धर्म सनातन का निष्ठावान व्यक्ति था। सभी भील चंद्र वंशी और सूर्यवंशी क्षत्रिय है। वे शस्त्र और शास्त्र धारी है। वे शास्त्र भूल गए, शस्त्र आज भी है।

वह तीर्थ की पवित्र भूमि प्रभास के वन में स्वछंद विचरण करता और खेती, कंदमूल, फल, शिकार कर अपनी आजीविका चलाता था।वह नित्य नारायण सरोवर में स्नान कर शिव जी पर जल चढ़ाता और श्रद्धापूर्वक जप करता था ॐ नमः शिवाय। 

द्वारका वहां से बहुत दूर नही थी। वह भी जन समूह के साथ सहयोग और दर्शन के लिए द्वारका चला जाता। वह भगवान श्री कृष्ण का कृपा पात्र था। भगवान भी अपने परिवार के साथ प्रभास तीर्थ में स्नान एवं पूजा पाठ करने आ जाया करते थे तो अवश्य उन्हें अपने पास बुलाने का संदेश भेजकर बुला लेते।

द्वारकाधीश भगवान के महा प्रयाण के समय सभी यदुवंशी प्रभास में ही थे। पर धर्मानुष्ठान के बाद सभी यदुवंशी यादव आपसी कलह में मारे गए। उस समय अकेले भगवान ही शेष थे। फिर भी वे प्रसन्न, आत्म रूप में स्थिर थे। वे एक पीपल के वृक्ष को अपनी पीठ टिकाकर बैठे थे। घना जंगल था। जंगल में विभिन्न प्रकार के हिसंक जीव जंतु थे। भगवान श्री कृष्ण को उस एकाकी समय में अपने प्रिय भक्त जरा भील की स्मृति हो आयी। वे अपने भक्त का अंतिम सान्निध्य पाना और देना चाहते थे। उन्हें अपने अंतिम कार्य स्वधाम गमन में सहयोगी बनाना चाहते थे। भागवत संकल्प अद्भुत है। भक्त जरा भील के हृदय में भी वह प्रभु का संकल्प साकार हो उठा।

शिकार के निमित्त से वह चल पड़ा। आज उसको भी प्रभु की याद आ रही थी। शिकार तो एक बहाना था, प्रभु की कृपा ही प्रमुख थी। शिकार ढूंढते ढूंढते वह वहाँ पहुंच गया जहां पर प्रभु विराज रहे थे। अचानक वृक्षों के झुरमुट में उनको एक हिरण दिखाई दिया। उन्होंने तन, मन एकाग्र कर तीर चला दिया। वह अति हर्ष से भर दौड़कर शिकार के पास पहुंच गया। लेकिन यह क्या? उन्होंने देखा ये तो द्वारकाधीश भगवान श्रीकृष्ण हमारे अन्नदाता, हमारे सम्राट! जरा को प्रभु के चरण में हिरन का भ्रम हो गया था।

जरा भील प्रभु के चरण पकड़कर रोने लगा- भगवन! क्षमा करो। जरा भील बहुत दुःखी था। द्वारकाधीश के पैर में तीर लग चुका था। पर द्वारकाधीश कृष्ण तो बड़े ही दयालु। उन्होंने जरा के शिर पर हाथ रखकर अभयदान देते हुए  कहा- मा भैष्ठ जरा मुत्तिष्ठ त्वया कार्यं कृतं ही मे। जरा मेरे प्रिय बंधु! उठो, डरो नही। तुमने मेरी इच्छा से ही मुझे तीर मारा है। मैं भी अब अपना अवतार कार्य पूर्ण करना चाहता हूं। तुमने इस मेरे कार्यं में मेरी मदद की है। 

मैं तुम्हे इस पवित्र ईश्वरीय कार्य के लिए मुक्ति का वरदान देता हूँ। तुम और तुम्हारे जाति के लोग मुझे सदा प्रिय बने रहेंगे। मांगो और क्या चाहिये। जरा ने कहा- प्रभो! आप की अविरल भक्ति। भगवान ने जरा के शिर पर हाथ रखा और हृदय से लगाकर अपना ज्ञान जरा के हृदय में प्रवेश करा दिया। भील कुल धन्य हो गया।

हाथ जोड़कर जरा भील प्रभु के चरणों में बैठ गया। उनको प्रभु की अविरल भक्ति प्राप्त हो गई।

उसी समय उद्धव और मैत्रेय जी प्रभु को ढूंढते ढूंढते वहां पहुंच गए। वे प्रभु के चरणों में नमन कर बैठ गए। प्रभु उनपर बहुत प्रसन्न थे। द्वारकाधीश भगवान के पास इस समय कोई नही था। केवल प्रभु के तीन शिष्य थे- मैत्रेय, उद्धव और भक्त जरा।

देवता गण आकाश में स्थित होकर प्रभु के स्वधाम गमन देखने की प्रतीक्षा कर रहे थे। लेकिन वे भी प्रभु का स्वधाम गमन देख नही पाए-अविज्ञात गतिं कृष्ण। उस समय आकाश में प्रकाश प्रगट हुआ। सब की आँखे बंद हो गयी। जब उन्होंने आंखे खोलकर प्रभु का स्वधाम गमन हो चुका था।

वे तीनों प्रभु के विरह में डूब गए। वे परस्पर प्रभु गुण गान करने लगे। फिर एक दूसरे को सांत्वना देते हुए अपने अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान किया। 

लेकिन भक्त जरा भील प्रभु का विरह सहन नही कर सका। वह भी उद्धव जी महाराज के पीछे बद्रीनाथ चल पड़ा। उन्होंने हिमालय बद्रीनाथ में अलकनंदा के पवित्र तट पर बहुत दिनों तक तप किया। उन्हें अनेक सिद्धियां प्राप्त हुई लेकिन उन्होंने प्रभु को छोड़  किसी को महत्व नही दिया। 

मृत्यु का समय आने पर प्रभु का स्मरण करते हुए भक्त जरा भील ने शरीर का त्याग कर प्रभु को प्राप्त कर लिया।

स्वामी प्रणवानंद सरस्वती- मुम्बई


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