गुरुवार, 10 सितंबर 2020

 दलितों के भगवान विठोबा।।

हम सब दलित है, हरिजन है और हमारे मातापिता है विठोबा।

पंढरी ची वारी   

          आहे माझ्या घरी  ।।

जै जय राम कृष्ण हरि।

सनातन धर्म में शैव और वैष्णव 2 आध्यात्मिक परंपरायें चलती है। शैव शिव जी को मानते है और वैष्णव विष्णु को। दोन्हों परंपरायें महान; सभ्य; धर्मनिष्ठ और मानवीय है। 

दोन्हों का मूल वेद है। दोन्हों परंपराओं में  जातीय कट्टरपन; धार्मिक  अंधविश्वास ; भाषीय अथवा प्रांतीय भेदभाव नही है। फिर भी दोन्हों साम्प्रदायि लोगों में स्व वर्चस्व की नोकझोक होती रहती है -शिव बड़ा की विष्णु वह भी प्रेम से।।

इन्हीं में एक  क्रांन्तिकारी संप्रदाय ने जन्म लिया-वारकरी सम्प्रदाय।

वैदिक व्यवस्था के विद्वेष पूर्ण संक्रमण काल में इस संप्रदाय की करीब 700 वर्ष पहले नीव पड़ी। धार्मिक भेदभाव पूर्ण व्यवहार के कारण अधिकतर लोग अपनी वैदिक  पहचान और धार्मिकता खोते जा रहे थे। लोग धार्मिक; सामाजिक एवँ राजनैतिक स्तरपर पतित हो चुके थे।

लोग अपनी संस्कृत भाषा; भूषा; रहनसहन खोते जा रहे थे। हमारी वैदिक व्यवस्था और पहचान भी नष्ट होने की ओर थी। 

ऐसे सांस्कृतिक पतन के अंधकार युग में लोगों को चाहिए था प्रेम; सर्व बंधुत्व; दया; क्षमा के साथ सह अस्तिव की धार्मिक स्वतंत्रता, जिसमें सब को मिले सामाजिक; धार्मिक समान अवसर। 

इस कमी को पूरा करने के लिए ही जन्म लिया वारकरी संप्रदाय ने। यह मूल रूप से वैदिक है और सर्वजन हिताय सर्व जन सुखाय का काम करता है। यह समत्व; दया; विनम्रता; समर्पण और धार्मिक समान अवसर पर आधारित है।

विठोबा दलितों के ही भगवान  है। हम सब दलित है और वे ही हम सब के पावन मातापिता है।।

इस सम्प्रदाय का सिद्धांत है जड़- चेतन सर्व जगत में एक भगवदीय सत्ता का वास है- आप उस को विठ्ठल; हरी; विष्णु; शिव आदि नामों से पुकार सकते है। हरी हरा भेद नाही। नका करू वाद।।विठ्ठल जली स्थली भरला। सब के साथ समानरूप से अच्छा व्यवहार कीजिये।

संत तुकाराम जी ने तो स्पष्ट घोषणा कर दी थी- वेदों का अर्थ तो हमे ही पता है; बाकि लोग तो केवल उसका बोझा ढोते है- वेदा चा तो अर्थ हमासाची ठावा। इतरानी वहवा भार माथा। 

इसके मूल पुरुष थे संत नामदेव महाराज दर्जी; संत ज्ञानेश्वर महाराज; संत चोखोबा महार; संत तुकाराम महाराज कुनबी; हैबतराव बाबा आदि। इस संप्रदाय में सभी जातियों के सभी वर्णीय संत हुए है। इन में न कोई छोटा है न बड़ा होता है। 

सभी वर्णों के लोग एक जगह बैठकर भोजन करते है; भजन करते है; कीर्तन करते है- नामदेव तुकाराम तुकाराम तुकाराम। 

वे नियमित पंढरी की वारी करते है-आळंदी से पंढरपुर। इसीलिए इन्हें वारकरी कहा जाता है। वारी माने नियमित रूप से विठ्ठल भगवान् के दर्शन के लिए पंढरपुर की वाहन से अथवा पैदल यात्रा करना। यह पदयात्रा 21 दिन चलती है। इसमें पैदल चलनेवाले करीब 2 लाख वैष्णव होते है। यह यात्रा आषाढ़ी एकादशी को पंढरपुर पंहुच कर विराम लेती है।     

माथे पर चंदन का तिलक; गले में तुलसी की माला; हाथ में वीणा और करताल; कंदे पर भगवी पताका; हृदय में पवित्र प्रेम और मुख से हरिनाम गजर यही तो वारकरी संप्रदाय का स्वरुप है। 

विठ्ठल विठ्ठल विठ्ठला। मेरे विठ्ठल पांडुरंगा। 

महामंडलेश्वर आचार्य

स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती-वृन्दावन

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शनिवार, 5 सितंबर 2020

 वनवासी राम की  समता, न्याय और बंधुभाव

किसी ने कहा- आर्य राम ने अनार्य बालि का छिपकर वध किया था.

मान लीजिये कि बालि अनार्य था तो फिर सुग्रीव क्या था? वो भी अनार्य था. दो अनार्य भाइयों के बीच किसी गलतफहमी के चलते झगड़ा था, झगड़े में बड़े भाई ने छोटे भाई को न सिर्फ मृत्यदंड की सजा दी थी बल्कि उसकी पत्नी को बलात अपने कब्जे में कर रखा था और उसके डर से सुग्रीव मारा-मारा फिर रहा था. त्रिलोक के अंदर बालि के भय से किसी के अंदर ये साहस नहीं था कि वो सुग्रीव को न्याय दिला सके. 

राम ने सुग्रीव को न्याय दिलाने का संकल्प किया. बालि का वध किया. अब बालि के वध के बाद आर्य राम ने क्या किया? राम ने राज्य पर स्वयं कब्ज़ा नहीं किया बल्कि उस पर उसी अनार्य सुग्रीव को प्रतिष्ठित किया. सुग्रीव की पत्नी रुमा को मुक्त कराकर राम ने उसे अपने अधीन नहीं किया बल्कि उसे ससम्मान सुग्रीव को सौंप दिया. बालि के परिजनों के साथ भी अन्याय न हो इसलिये राम ने उसकी पत्नी तारा को राज्य की मुख्य पटरानी के पद पर सुशोभित किया और प्रधान सेनापति के पद पर उसके बेटे अंगद को बिठाया. 

उस राम को आप सवर्ण कहिये, क्षत्रिय कहिये, मनुवादी कहिये या जो भी कहिये पर सत्य यही है कि राम ने राज्य पर कब्ज़ा नहीं किया, राज्य ने किसी संपत्ति को अपने उपयोग में नहीं लिया, रूमा या तारा को प्रताड़ित नहीं किया और न ही बालि के बेटे के साथ अन्याय होने दिया. राम आपके लिये सवर्ण, क्षत्रिय या मनुवादी होंगें पर दुनिया के लिये राम न्याय की मूर्ति थे. 

अगर बालि अनार्य थे तो फिर हनुमान क्या थे? वो भी अनार्य थे, अब आप सब मुझे बतायें कि आपके अनुसार भारतवर्ष का कौन सा ऐसा आर्य है जिसके यहाँ देवता रूप में हनुमान पूजित नहीं हैं? हाँ, खुद को अनार्य कहने वाले इन साहब के यहाँ ही हनुमान पूजित नहीं होंगे. 

समाज के निचली पायदान पर बैठी शबरी माता के जूठे बेर खाने वाले श्रीराम के सखाओं में वानर वीर सुग्रीव थे तो निषाद राज केवट भी थे, 

हमारे महान हिन्दू समाज और भारत देश पर दुर्भाग्य की काली छाया उस दिन से पड़नी आरंभ हुई जब विस्तारवाद की आकांक्षा वाले मजहबों का यहाँ पर पदार्पण हुआ और इस दुर्भाग्य का अंत भी तभी होगा जब हम इन विस्तारवादियों की चाल में नहीं आयेंगे.

सन्देश यही है, वंचित समाज से जुड़िये, उनके पास जाइये, उनसे दर्द सांझा करिए, उन्हें सत्य का ज्ञान कराइए. उनके अंदर सदियों से सिर्फ जहर और अलगाव ही भरा गया है. उनके अंदर की किसी शंका का समाधान करने उनके पास हमसे पहले ईसा वाले और इस्लाम वाले पहुँच जाते हैं. अब हमारी जिम्मेदारी है कि उनको बताइए कि हमारे हिन्दू समाज में जातियों का भेद नहीं है।

भगवान हम सब के है और हम सब समान है , सनातन है, हिन्दू है.

शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

दलितों के भगवान विठ्ठोबा पंढरपुर

 दलितों के भगवान विठोबा।।

हम सब दलित है, हरिजन है और हमारे मातापिता है विठोबा।

पंढरी ची वारी   

          आहे माझ्या घरी  ।।

जै जय राम कृष्ण हरि।

सनातन धर्म में शैव और वैष्णव 2 आध्यात्मिक परंपरायें चलती है। शैव शिव जी को मानते है और वैष्णव विष्णु को। दोन्हों परंपरायें महान; सभ्य; धर्मनिष्ठ और मानवीय है। 

दोन्हों का मूल वेद है। दोन्हों परंपराओं में  जातीय कट्टरपन; धार्मिक  अंधविश्वास ; भाषीय अथवा प्रांतीय भेदभाव नही है। फिर भी दोन्हों साम्प्रदायि लोगों में स्व वर्चस्व की नोकझोक होती रहती है -शिव बड़ा की विष्णु वह भी प्रेम से।।

इन्हीं में एक  क्रांन्तिकारी संप्रदाय ने जन्म लिया-वारकरी सम्प्रदाय।

वैदिक व्यवस्था के विद्वेष पूर्ण संक्रमण काल में इस संप्रदाय की करीब 700 वर्ष पहले नीव पड़ी। धार्मिक भेदभाव पूर्ण व्यवहार के कारण अधिकतर लोग अपनी वैदिक  पहचान और धार्मिकता खोते जा रहे थे। लोग धार्मिक; सामाजिक एवँ राजनैतिक स्तरपर पतित हो चुके थे।

लोग अपनी संस्कृत भाषा; भूषा; रहनसहन खोते जा रहे थे। हमारी वैदिक व्यवस्था और पहचान भी नष्ट होने की ओर थी।

ऐसे सांस्कृतिक पतन के अंधकार युग में लोगों को चाहिए था प्रेम; सर्व बंधुत्व; दया; क्षमा के साथ सह अस्तिव की धार्मिक स्वतंत्रता, जिसमें सब को मिले सामाजिक; धार्मिक समान अवसर। 

इस कमी को पूरा करने के लिए ही जन्म लिया वारकरी संप्रदाय ने। यह मूल रूप से वैदिक है और सर्वजन हिताय सर्व जन सुखाय का काम करता है। यह समत्व; दया; विनम्रता; समर्पण और धार्मिक समान अवसर पर आधारित है।

विठोबा दलितों के ही भगवान  है। हम सब दलित है और वे ही हम सब के पावन मातापिता है।।

इस सम्प्रदाय का सिद्धांत है जड़- चेतन सर्व जगत में एक भगवदीय सत्ता का वास है- आप उस को विठ्ठल; हरी; विष्णु; शिव आदि नामों से पुकार सकते है। हरी हरा भेद नाही। नका करू वाद।।विठ्ठल जली स्थली भरला। सब के साथ समानरूप से अच्छा व्यवहार कीजिये।

संत तुकाराम जी ने तो स्पष्ट घोषणा कर दी थी- वेदों का अर्थ तो हमे ही पता है; बाकि लोग तो केवल उसका बोझा ढोते है- वेदा चा तो अर्थ हमासाची ठावा। इतरानी वहवा भार माथा। 

इसके मूल पुरुष थे संत नामदेव महाराज दर्जी; संत ज्ञानेश्वर महाराज; संत चोखोबा महार; संत तुकाराम महाराज कुनबी; हैबतराव बाबा आदि। इस संप्रदाय में सभी जातियों के सभी वर्णीय संत हुए है। इन में न कोई छोटा है न बड़ा होता है।

सभी वर्णों के लोग एक जगह बैठकर भोजन करते है; भजन करते है; कीर्तन करते है- नामदेव तुकाराम तुकाराम तुकाराम।  

वे नियमित पंढरी की वारी करते है-आळंदी से पंढरपुर। इसीलिए इन्हें वारकरी कहा जाता है। वारी माने नियमित रूप से विठ्ठल भगवान् के दर्शन के लिए पंढरपुर की वाहन से अथवा पैदल यात्रा करना। यह पदयात्रा 21 दिन चलती है। इसमें पैदल चलनेवाले करीब 2 लाख वैष्णव होते है। यह यात्रा आषाढ़ी एकादशी को पंढरपुर पंहुच कर विराम लेती है।

माथे पर चंदन का तिलक; गले में तुलसी की माला; हाथ में वीणा और करताल; कंदे पर भगवी पताका; हृदय में पवित्र प्रेम और मुख से हरिनाम गजर यही तो वारकरी संप्रदाय का स्वरुप है। 

विठ्ठल विठ्ठल विठ्ठला। मेरे विठ्ठल पांडुरंगा। 

महामंडलेश्वर आचार्य

स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती-वृन्दावन

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भक्त जरा भील पर प्रभु की कृपा

 भक्त दरबार चंद्रवंशी भील जरा पर प्रभु की कृपा और प्रभु का स्वधाम गमन।

अब के गुजरात में नारायण सरोवर के पास प्रभास नाम का आदि सनातनीयों का एक महान तीर्थ है। वहीं पर पवित्र जंगल में एक दरबार चंद्रवंशी जरा नाम का भील अपने परिवार के साथ रहता था। वह प्रकृति का आदि धर्म सनातन का निष्ठावान व्यक्ति था। सभी भील चंद्र वंशी और सूर्यवंशी क्षत्रिय है। वे शस्त्र और शास्त्र धारी है। वे शास्त्र भूल गए, शस्त्र आज भी है।

वह तीर्थ की पवित्र भूमि प्रभास के वन में स्वछंद विचरण करता और खेती, कंदमूल, फल, शिकार कर अपनी आजीविका चलाता था।वह नित्य नारायण सरोवर में स्नान कर शिव जी पर जल चढ़ाता और श्रद्धापूर्वक जप करता था ॐ नमः शिवाय। 

द्वारका वहां से बहुत दूर नही थी। वह भी जन समूह के साथ सहयोग और दर्शन के लिए द्वारका चला जाता। वह भगवान श्री कृष्ण का कृपा पात्र था। भगवान भी अपने परिवार के साथ प्रभास तीर्थ में स्नान एवं पूजा पाठ करने आ जाया करते थे तो अवश्य उन्हें अपने पास बुलाने का संदेश भेजकर बुला लेते।

द्वारकाधीश भगवान के महा प्रयाण के समय सभी यदुवंशी प्रभास में ही थे। पर धर्मानुष्ठान के बाद सभी यदुवंशी यादव आपसी कलह में मारे गए। उस समय अकेले भगवान ही शेष थे। फिर भी वे प्रसन्न, आत्म रूप में स्थिर थे। वे एक पीपल के वृक्ष को अपनी पीठ टिकाकर बैठे थे। घना जंगल था। जंगल में विभिन्न प्रकार के हिसंक जीव जंतु थे। भगवान श्री कृष्ण को उस एकाकी समय में अपने प्रिय भक्त जरा भील की स्मृति हो आयी। वे अपने भक्त का अंतिम सान्निध्य पाना और देना चाहते थे। उन्हें अपने अंतिम कार्य स्वधाम गमन में सहयोगी बनाना चाहते थे। भागवत संकल्प अद्भुत है। भक्त जरा भील के हृदय में भी वह प्रभु का संकल्प साकार हो उठा।

शिकार के निमित्त से वह चल पड़ा। आज उसको भी प्रभु की याद आ रही थी। शिकार तो एक बहाना था, प्रभु की कृपा ही प्रमुख थी। शिकार ढूंढते ढूंढते वह वहाँ पहुंच गया जहां पर प्रभु विराज रहे थे। अचानक वृक्षों के झुरमुट में उनको एक हिरण दिखाई दिया। उन्होंने तन, मन एकाग्र कर तीर चला दिया। वह अति हर्ष से भर दौड़कर शिकार के पास पहुंच गया। लेकिन यह क्या? उन्होंने देखा ये तो द्वारकाधीश भगवान श्रीकृष्ण हमारे अन्नदाता, हमारे सम्राट! जरा को प्रभु के चरण में हिरन का भ्रम हो गया था।

जरा भील प्रभु के चरण पकड़कर रोने लगा- भगवन! क्षमा करो। जरा भील बहुत दुःखी था। द्वारकाधीश के पैर में तीर लग चुका था। पर द्वारकाधीश कृष्ण तो बड़े ही दयालु। उन्होंने जरा के शिर पर हाथ रखकर अभयदान देते हुए  कहा- मा भैष्ठ जरा मुत्तिष्ठ त्वया कार्यं कृतं ही मे। जरा मेरे प्रिय बंधु! उठो, डरो नही। तुमने मेरी इच्छा से ही मुझे तीर मारा है। मैं भी अब अपना अवतार कार्य पूर्ण करना चाहता हूं। तुमने इस मेरे कार्यं में मेरी मदद की है। 

मैं तुम्हे इस पवित्र ईश्वरीय कार्य के लिए मुक्ति का वरदान देता हूँ। तुम और तुम्हारे जाति के लोग मुझे सदा प्रिय बने रहेंगे। मांगो और क्या चाहिये। जरा ने कहा- प्रभो! आप की अविरल भक्ति। भगवान ने जरा के शिर पर हाथ रखा और हृदय से लगाकर अपना ज्ञान जरा के हृदय में प्रवेश करा दिया। भील कुल धन्य हो गया।

हाथ जोड़कर जरा भील प्रभु के चरणों में बैठ गया। उनको प्रभु की अविरल भक्ति प्राप्त हो गई।

उसी समय उद्धव और मैत्रेय जी प्रभु को ढूंढते ढूंढते वहां पहुंच गए। वे प्रभु के चरणों में नमन कर बैठ गए। प्रभु उनपर बहुत प्रसन्न थे। द्वारकाधीश भगवान के पास इस समय कोई नही था। केवल प्रभु के तीन शिष्य थे- मैत्रेय, उद्धव और भक्त जरा।

देवता गण आकाश में स्थित होकर प्रभु के स्वधाम गमन देखने की प्रतीक्षा कर रहे थे। लेकिन वे भी प्रभु का स्वधाम गमन देख नही पाए-अविज्ञात गतिं कृष्ण। उस समय आकाश में प्रकाश प्रगट हुआ। सब की आँखे बंद हो गयी। जब उन्होंने आंखे खोलकर प्रभु का स्वधाम गमन हो चुका था।

वे तीनों प्रभु के विरह में डूब गए। वे परस्पर प्रभु गुण गान करने लगे। फिर एक दूसरे को सांत्वना देते हुए अपने अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान किया। 

लेकिन भक्त जरा भील प्रभु का विरह सहन नही कर सका। वह भी उद्धव जी महाराज के पीछे बद्रीनाथ चल पड़ा। उन्होंने हिमालय बद्रीनाथ में अलकनंदा के पवित्र तट पर बहुत दिनों तक तप किया। उन्हें अनेक सिद्धियां प्राप्त हुई लेकिन उन्होंने प्रभु को छोड़  किसी को महत्व नही दिया। 

मृत्यु का समय आने पर प्रभु का स्मरण करते हुए भक्त जरा भील ने शरीर का त्याग कर प्रभु को प्राप्त कर लिया।

स्वामी प्रणवानंद सरस्वती- मुम्बई


महाशिव रात्री का महातपस्वी आदि सनातन गुरुदर्श भील

 महाशिवरात्री का आदि तपस्वी आदि सनातन गुरुदर्श भील-


हिमालय की पवित्र तपोभूमि हरिद्वार में बिल्व वन में एक वनवासी भील सपरिवार निवास करता था। उसका नाम था गुरुदर्श।


वह गंगा के पावन तट पर तपस्वियों के मध्य में सघन वन में रहकर अपने परिवार का भरण पोषण करता था। उसकी आजीविका थी कंद, मूल, फल तथा शिकार। 


आज उसके घर में खाने को कुछ नही था। वह वन से वन्य आहार लेने के लिए हाथ में हसिया, फरसा और धनुष बाण लेकर निकल पड़ा। कुछ आहार मिलें तभी घर के बाल बच्चे पत्नी भोजन करेंगे, नही तो सभी भूखे सोएंगे। इसलिए वह तन्मयता से भोजन खोजने लगा।


उन्होंने दिनभर बहुत ढूंढा लेकिन शिकार अथवा कंद, मूल,फल नही मिले। दिन ढल चुका था। रात का आगमन हो गया था। रात ने वन को अंधेरी चादर में ढक दिया। परन्तु वह हताश नही हुआ। उन्होंने सोचा रात में अवश्य कोई न कोई खरगोश, हिरन अथवा जंगली सुअर मिलेगा।


वह बिल्व वन में एक छोटे से जलाशय के किनारे घने बिल्व वृक्ष पर बैठ गया। उसके हाथ मे तीर, कमान और पीठ पर पर तूणीर था, हाथ में रस्सी से बंधा एक पानी का पात्र भी। कमर में तथा माथे पर एक गमछा लपेट रखा था। 


वह बहुत एकाग्रता से शिकार की प्रतीक्षा करने लगा।


दैवयोग से बिल्व वृक्ष के नीचे एक शिव लिंग था। वह सिद्ध पुरुषों द्वारा सेवित सिद्ध शिव लिंग था। पर अंधकार और पत्तों में छिपा होने के कारण दिखाई नही दे रहा था। 


शिव की महिमा अद्भुत है। लोटा हिलने से थोड़ा सा जल शिव लिंग पर गिरा। शिकार को देखने के लिए आंखों के सामने के बिल्व पत्र हटाते हुए तोड़कर नीचे गिरा दिये। अनजाने में बिल्व पत्र भी शिवलिंग पर गिरे। गुरु प्रिय का चित्त कुछ शुद्ध हो गया और अनायास मुख से निकला- ॐनम: शिवाय। 


अनजाने में चढ़ा जल, बिल्वपत्र और  शिव मंत्र के जप से गुरु प्रिय भील की प्रथम प्रहर की पूजा पूर्ण हो गयी।


रात का प्रथम प्रहर व्यतीत होने के पहले एक मादा हिरण जलाशय पर पानी पीने के लिए आयी | उसे देखकर भील ने धनुष पर बाण चढ़ाया। वह बान छोड़ने ही वाला था। लेकिन एक अद्भुत घटना घटी। शिव लिंग के प्रभाव से हिरणी में समझ और बोलने की शक्ति का उदय हो गया। 


हिरनी ने पत्तों की खड़खड़ाहट सुनकर ऊपर की ओर देखा और वह समझ गयी, यह  मुझे मार देगा।  


हिरनी ने भयभीत होकर शिकारी से  कांपते स्वर में कहा- ‘मुझे मत मारो। शिकारी ने कहा- वह और उसका परिवार भूखा है इसलिए वह उसको नहीं छोडेगा। हिरणी ने वादा किया कि वह अपने बच्चों को अपने स्वामी को सौंप कर लौट आयेगी। तब वह उसका शिकार कर ले। 


हिरनी ने शिव की कृपा से शिकारी को विश्वास दिलाया कि जैसे सत्य पर ही धरती टिकी है। सत्य से ही समुद्र मर्यादा में रहता है। सत्य से ही झरनों से जल-धाराएँ गिरा करती हैं। वैसे ही वह भी सत्य बोल रही है।

शिकारी को शिव जी की कृपा से उस की बात पर विश्वास हुआ और दया का भाव भी उसमें उदित हुआ। उसने हिरनी को कहा- ‘ तुम जल्दी लौट आओ' उस ने हिरनी को जाने दिया ।


द्वितीय प्रहर का आरंभ हो गया।वह हिरनी के वापस आने की प्रतीक्षा करने लगा।

थोड़े समय बाद एक और हिरनी वहां पानी पीने आयी। शिकारी सावधान हो गया। तीर साधने लगा और ऐसा करते हुए, उसके हाथ के धक्के से पहले की ही तरह थोडा जल और कुछ बेलपत्र नीचे शिवलिंग पर जा गिरे और मुख से निकला ॐ नमः शिवाय। अनायास ही शिकारी की द्वितीय प्रहर की पूजा भी हो गयी। इस हिरनी ने भी भयभीत हो कर, शिकारी से जीवनदान की याचना की। शिव लिंग के प्रभाव से हिरनी ने उसे लौट आने का वचन दिया और समझाया कि जो वचन दे कर पलट जाता है, उसका अपने जीवन में संचित पुण्य नष्ट हो जाता है। उस शिकारी ने पहले की तरह हिरनी के इस वचन पर विश्वास कर उसे जाने दिया।

अब  इस चिंता से व्याकुल भी हो रहा था कि शायद ही उन में से कोई हिरन लौट कर आये।अब मेरे परिवार का क्या होगा।


तृतीय प्रहर का आरंभ हो गया। इतने में ही उसने जल की ओर आते हुए एक हिरण को देखा। उसे देखकर शिकारी अति प्रसन्न हुआ। अब फिर धनुष पर बाण चढाने लगा, आश्चर्य वैसे ही उसके हाथ हिलने से जल और बिल्व पत्र शिव लिंग पर गिरे और मुख से निकला ॐ नमः शिवाय। बस उसकी तीसरे प्रहर की पूजा भी स्वतः ही संपन्न हो गयी। 


पत्तों के गिरने की आवाज़ से उसने शिकारी को देखा और पूछा –“ तुम क्या करना चाहते हो ?” वह बोला-“अपने कुटुंब को भोजन देने के लिए तुम्हारा वध करूंगा ” । शिव लिंग के सान्निध्य से इस हिरण का भी चित्त शुद्ध हो गया। वह मृग प्रसन्न हो कर कहने लगा– “मैं धन्य हूँ कि मेरा यह शरीर किसी के काम आए, परोपकार से मेरा जीवन सफल हो जाये। पर कृपा कर अभी मुझे जाने दीजिये, मैं अपने बच्चों को उनकी माता के हाथ में सौंप कर, उन सबको धीरज बंधा कर यहाँ लौट आऊंगा । ” शिकारी का ह्रदय, उसके पापपुंज नष्ट हो जाने से अब और शुद्ध हो गया।इसलिए वह विनयपूर्वक बोला –‘ जो-जो यहाँ आये, सभी बातें बनाकर चले गये और अभी तक नहीं लौटे, यदि तुम भी झूठ बोलकर चले जाना चाहते हो तो चले जाओ। अब मेरे परिजन प्रभु को समर्पित। 


इस हिरन ने भी यह कहते हुए उसे अपने सत्य बोलने का विश्वास दिलाया कि यदि वह लौटकर न आये; तो उसे वह पाप लगे जो उसे लगा करता है जो सामर्थ्य रहते हुए भी दूसरे का उपकार नहीं करता। शिकारी ने उसे भी यह कहकर जाने दिया कि ‘शीघ्र लौट आना ।


रात्रि का अंतिम चतुर्थ प्रहर शुरू होते ही शिकारी के हर्ष की सीमा नही रही क्योंकि उसने उन सब हिरन-हिरनियों को अपने बच्चों सहित एक साथ आते देख लिया। उन्हें देखते ही उसने अपने धनुष पर बाण रखा । पहले की ही तरह उसके हिलने से लोटे का जल शिवलिंग पर गिरा। सामने के बिल्व पत्र तोड़कर नीचे गिरा दिए। वह भी शिव लिंग पर गिरे। मुख से निकला ॐ नमः शिवाय। उसकी चौथे प्रहर की पूजा भी  संपन्न हो गयी।


उस शिकारी के शिव कृपा से सभी पाप भस्म हो गये। इसलिए वह सोचने लगा-‘ओह ये पशु धन्य हैं जो ज्ञानहीन हो कर भी अपने शरीर से परोपकार करना चाहते हैं, लेकिन धिक्कार है मेरे जीवन को कि मैं इनको मारकर खाना चाहता हूँ। मैं अनेक प्रकार से शिकार आदि से अपने परिवार का पालन करता रहा हूँ।अब  मैं कभी हिंसा नही करूंगा। सत्य और ईमानदारी से परिश्रम कर वन्य कंद, मूल, फल आदि से जीवन यापन करूंगा। 


वह बिल्व वृक्ष से नीचे उतर आया। बान को तूणीर में रखा और धनुष बाण गले में टांग लिया। उन्होंने हाथ जोड़कर मृग समूह को कहा-तुम सभी धन्य हो, प्रभु की कृपा से तुम्ह में सत्य और परोपकार की भावना है। मैंने भी तुम से यह भावना सीखी है। आज से तुम मेरे लिए गुरुतुल्य हो। उन्होंने सभी को अपनी वचन बद्धता से मुक्त कर उन्हें वन में मुक्त जीवन जीने का अभयदान दे दिया। वे सभी हिरन गुरु प्रिय भील को धन्यवाद देते हुए जलपान कर वन में चले गए।


गुरु प्रिय भील ने अपना नाम सार्थक कर लिया। भगवान बाबादेव आदिदेव महादेव शिव ने प्रसन्न हो कर तत्काल उसे अपने दिव्य स्वरूप के दर्शन देकर उसे भक्ति के साथ सुख-समृद्धि का वरदान दिया। उनको भगवान शिव जी ने कहा- वत्स!तुम गूढ़, गुह्य, गोपनीय साधना को जानने वाले तथा मेरे को प्रिय हो इसलिए आज के बाद तुम को लोग गुह्य अथवा गुरु प्रिय नाम से जानेंगे। 


यही है शिव की महा शिवरात्रि की कथा, जिसका गान सम्पूर्ण हिन्दू समूह करता है।

ॐ जय आदि सनातन हिन्दू ।


म.म.स्वामी प्रणवानंद सरस्वती


पूरी जगन्नाथ महाप्रभु के प्रथम पुजारी-भील राजवंश क्षत्रिय विश्वावसु

 पूरी जगन्नाथ महा प्रभु के प्रथम पुजारी- भील क्षत्रिय दरबार विश्वावसु-



पुरी का श्री जगन्नाथ मंदिर हिन्दू मंदिर है, यह भगवान जगन्नाथ महाप्रभु श्रीकृष्ण को समर्पित है।


यह भारत के ओडिशा राज्य के तटवर्ती शहर पुरी में है। जगन्नाथ शब्द का अर्थ है जगत के स्वामी। इस पूरी में जगत के नाथ जगन्नाथ महाप्रभु निवास करते है इसलिए इस नगरी को जगन्नाथपुरी कहते है।


इस मंदिर को हिन्दुओं के चार धाम में एक गिना जाता है। यह वैष्णव, शैव तथा चारों वर्ण के सभी लोगों के लिए समान है। इसके चार दिशाओं के चार द्वार चारों युगों में चारो वर्णों के लिए भगवान की समानता का उपदेश करते है।


भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण सब के लिए समान है।

इस मंदिर का वार्षिक रथ यात्रा उत्सव भी प्रसिद्ध है। इस में सम्पूर्ण विश्व के लोग आते है। इसमें मंदिर के तीनों मुख्य देवता, भगवान जगन्नाथ महा प्रभु, उनके बड़े भ्राता बलभद्र और भगिनी सुभद्रा तीनों, तीन अलग-अलग भव्य और सुसज्जित रथों में विराजमान होकर नगर भ्रमण पर निकलते हैं। 


पूरी लोकगाथा और पुराणों से इसके मूल में एक बड़ी सुन्दर कथा आती है। गुजरात प्रभास क्षेत्र में सभी यदुवंशी यादव आपसी युद्ध में मारे गए। उस मे श्रीकृष्ण भी युद्ध में घायल हो गए। बलराम जी ने भी शरीर छोड़ा। उस युद्ध में यदुवंश तथा अन्य  वंश के बहुत से क्षत्रिय वीर बचे थे। उन्होंने श्रीकृष्ण को लेकर जलमार्ग से उत्कल की यात्रा की। आज के पूरी क्षेत्र पर  श्रीकृष्ण के पुत्र अनिरुद्ध शासन  था। जगन्नाथ पुरी में श्रीकृष्ण की मौसी भी रहती थी। यदुवंशी यादवों के आपसी कलह से उत्पन्न विनाश के उपरांत तथा देहत्याग के पूर्व कुछ समय श्री कृष्ण पूरी में रहे थे।


 प्रभु श्री कृष्ण अस्वस्थ थे। उन्हें खासी, जुखाम और बुखार भी था। वैद्यो ने उनका उपचार किया। वे अपने निवास से रथ के द्वारा मौसी तथा अन्य नागरिकों को मिलने निकलते थे। आज भी उसी स्मृति में रथ यात्रा निकलती है। भगवान् श्री कृष्ण ने अंत में अपना शरीर छोड़ दिया। उनका अंत्येष्टि संस्कार भी हुआ। आज उसी स्थान पर लकड़ी के विग्रह को विसर्जित किया जाता है।

       पूरी की लोग गाथा के अनुसार श्रीकृष्ण के अंत्येष्टि संस्कार में शरीर के सभी अंग जल गए परन्तु उनके हृदय का अंश नहीं जला। उसको समुद्र में प्रवाहित किया गया। परन्तु एक आश्चर्य की घटना घटि वह जल पर तरंगित  ह्रदय पिंड नील ज्योति में बदल गया। प्रभु के स्वजन मित्रों में एक भील राजा  भी वहां पर उपस्थित थे। उन्होंने प्रार्थना पूर्वक उस पिंड को बाहर निकाला। वह भगवदीय नील हृदय पिंड विश्वावसु पाकर धन्य हो गए।


राजा विश्वावसु नील पर्वत पर रहा करते थे। वही पर उनका छोटा सा राज्य था। वे भील राजा न्यायप्रिय, कृष्ण भक्त तथा यदुकुल के चंद्र वंशी शाखा के क्षत्रिय थे। सभी भील आदिवासी करीब इसी शाखा के खत्री है। उनका भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में अत्यधिक अनुराग था। उस समय वे भी वहां पर शोकाकुल अवस्था में प्रभु के विरह थे। कुछ परम्पराओं का कथन है कि वही भक्त जरा भील प्रभु की सेवा में रहा। और वही प्रभु की कृपा से जगन्नाथ महा प्रभु का प्रथम पुजारी बना।


 वे उस दिव्य नील भगवद विग्रह को लेकर अपने घर आ गए। उनका नाम रखा नील माधव। वे नील पर्वत की एक गुफा में नील माघव के नाम से पुजे जाने लगे। नील माधव भील राजा विश्वावसु के आराध्य देव थे। वर्षों तक उन्होंने महाप्रभु की नील माधव के रूप में पूजा की।


उसके अनंतर भगवान ने प्रभु का दारू मयि विग्रह बनाकर पूजा करने का आदेश दिया। तब से दारू विग्रह बनाकर उनके हृदय में नीलमाधव प्रभु को स्थापित किया जाता है। उसको ब्रह्म संबंध कहते। हर 12 वर्ष में एक बार नया विग्रह बनता है  पुराने विग्रह को विसर्जित कर नए की स्थापना की जाती है। परंतु वही पुराना हृदय में स्थित प्रभु का हृदय अंश नील माधव जी को नए विग्रह में स्थापित किया जाता है। यह क्रिया बड़ी गोपनीय तथा पारम्परिक लोगों द्वारा की जाती है।


म.म.आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी प्रणवानंद सरस्वती- वृन्दावन

 कृष्ण भोगी नही, योगी थे।


भागवत नही, महाभारत से कृष्ण की महिमा अधिक मालूम पड़ती है।


भगवान कृष्ण जी का सत्यस्वरूप जानने के लिए महा भारत  ग्रंथ को पढ़ना चाहिए। महाभारत ग्रंथ के बिना कृष्ण के यथार्थ स्वरूप को समझना कठिन है।


आइए जानते हैं कि श्रीकृष्ण जी के ब्रह्मचर्य के विषय में महाभारत क्या कहती है ।।


महाभारत का युद्ध होने से पहले जब अश्वत्थामा श्रीकृष्ण जी से सुदर्शन चक्र मांगने आता है तो श्री कृष्ण जी  ने अश्वत्थामा से कहा कि ठीक है ले जाओ ये चक्र परंतु अश्वत्थामा से वो चक्र ले जाना या उठाना तो दूर रहा,वो चक्र हिला तक नही और फिर श्री कृष्ण जी सौप्तिक पर्व के 12 वें अध्याय में उससे कहते हैं कि


अश्वत्थामा को कृष्ण कहते है- मैंने संदीपनी ऋषि के आश्रम में 48 वर्ष तक शिक्षा ग्रहण की थी और उसके बाद जब रुक्मणी से विवाह किया। विवाह के बाद भी बारह वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन किया क्योंकि रुक्मणी को मेरे समान बलशाली पुत्र चाहिए था ।  ऐसा मत सोचिए कि कृष्ण द्वारका नगरी बनाकर भोग विलास में लग गये। वे भारत भूमि अत्याचारी शासकों से मुक्त करने के लिए प्रयास रत थे। 


श्री कृष्ण जी कहते हैं कि


ब्रह्मचर्यं महद् घोरं तीर्त्त्वा द्वादशवार्षिकम् ।

हिमवत्पार्श्वमास्थाय यो मया तपसार्जितः ।।31।।

समानव्रतचारिण्यां रुक्मिण्यां योsन्वजायत ।

सनत्कुमारस्तेजस्वी प्रद्युम्नो नाम में सुतः ।।32।।


अर्थ:- मैंने 12 वर्ष तक रुक्मिणी के साथ हिमालय में ठहरकर महान् घोर ब्रह्मचर्य का पालन करके सनत्कुमार के समान तेजस्वी प्रद्युम्न नाम के पुत्र को प्राप्त किया था ।।


विवाह के पश्चात्  भी 12 वर्ष तक घोर ब्रह्मचर्य को धारण करना उनके संयम का महान् उदाहरण है। कृष्ण भोगी नही, योगी थे।


श्री कृष्ण जी के तमाम भक्तों से अनुरोध है कि ऐसे महान योगी,ब्रह्मचारी पुरुष की तरह हम भी जीवन जिये,वही श्री कृष्ण जी की असली पूजा है।।


योगेश्वर श्री कृष्ण महाराज की जय

सत्य सनातन वैदिक धर्म की जय।


जय आर्य जय आर्यावर्त्त


जनमाष्टमी की हार्दिक शुभ कामनाएं।



 श्री श्री बिरसा देव मुंडा


जय आदि सनातन।


विरसा देव मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 में झारखंड राज्य के रांची में एक सनातनी आदिवासी जनजाति में हुआ ।

उनका नाम मुंडा रीति से बृहस्पति वीरवार के नाम पर बीरसा रखा गया।


उनका बाल्य काल विलक्षण था। वे भेड़ बकरियां चराते हुए मधुर स्वर में कृष्ण की बंशी बजाया करते थे। वे अद्भुत विलक्षण बालक थे, उन्होंने कद्दुका एक तार वाला वाद्य यंत्र एकतारा बनाया था। वे उस पर जनजाति भजन गाकर आनन्द में मस्त हो जाया करते थे।


उनके थोड़ा बड़ा होने पर बिरसा देव को उसके पिता द्वारा चाईबासा के एक जर्मन मिशन कॉलेज में शिक्षा आरंभ करवाई। 


उस समय सभी मिशनरी स्कूलों में वनवासी हिन्दू संस्कृति का मज़ाक उड़ाया जाता था।

इस पर वीरसा ने भी ईसाइयों का मज़ाक उड़ाना आरंभ कर दिया। इस कारण ईसाई धर्म प्रचारकों ने बिरसा देव को मिशनरी स्कूल से बाहर निकाल दिया।


यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि बिरसा देव के पिता सुगुणा देव मुंडा तथा उनके चाचा, ताऊ सभी ईसाई धर्म के षड्यंत्र में फंसकर ईसाई धर्म ग्रहण कर चुके थे और वे ईसाई धर्म प्रचारकों के सहयोगी के रूप में काम भी कर रहे थे। लेकिन विरसा देव मुंडा अपनी सनातनी संस्कृति तथा धर्म छोड़ने को तैयार नही थे। सनातन धर्म उनकी आत्मा में बसा हुआ था।


ऐसे में बिरसा देव के अंदर मिशनरियों के विरुद्ध रोष पैदा होना किसी चमत्कार से कम नहीं था।


स्कूल छोड़ने के बाद बिरसा देव के जीवन में नया मोड़ आया। वे  सनातनी धर्मगुरु स्वामी आनन्द के संपर्क में आये। उन्हें अपनी आत्मा मिल गयी। उसके बाद बिरसा देव ने महाभारत और हिन्दू धर्म का पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया। उन्हें अपने धर्म और संस्कृति की महानता का परिचय हुआ। वे वैष्णव धर्म मे दीक्षित हो गए। उन पर गुरु की कृपा हो गई। 


उनके जीवन में देवत्व प्रगट हुआ। वे महान सिद्ध परम्परा के अनुभवी अवतारी पुरुष बन गए। उसके बाद 1895 में उनमें दैवी शक्ति का अवतरण हुआ।कुछ ऐसी आलौकिक घटनाएं घटी कि बिरसा देव के स्पर्श मात्र से लोगों के रोग दूर होने लगे।


बिरसा देव मुंडा ने आदिवासियों की ज़मीन छीनने, लोगों को ईसाई बनाने और उनके द्वारा युवतियों को दलालों द्वारा उठा ले जाने वाले कुकृत्यों को अपनी आंखों से देखा था। उनके मन में अंग्रेजों के अनाचार के प्रति क्रोध की ज्वाला भड़क उठी। वे समझ चुके थे धर्मान्तरण और आदिवासियों प्रति अनाचार के के कारण ईसाई अंग्रेज ही है।


जनवरी1900 में अंग्रेजों के साथ संघर्ष हुआ। उसमें 400 औरतें और बच्चे भी मारे गए। वह संघर्ष एक प्रकार से जनजाति हिन्दू और ईसाई धर्म संघर्ष में बदल गया। क्योंकि ईसाई नही चाहते थे कि वे ईसाई धर्म परिवर्तन को रोके। वीरसा देव के बहुत से अनुयायी बंदी बना लिए गए।


उन्होंने किसानों के शोषण के विरुद्ध आवाज उठाकर ईसाई अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध बिगुल फूँक दिया। उन्होंने लोगों को ईसाईयों और मादक पदार्थों से दूर रहने की सलाह दी।


 जन सामान्य में बिरसा देव के प्रति महान अवतारी पुरुष की तरह दृढ़ विश्वास और अगाध श्रद्धा ने जन्म लिया।


सही भी था लोगों को शोषण और अन्याय से मुक्त कराने का काम ही तो अवतारी पुरुष करते हैं वही काम वीरसा देव ने किया।


बिरसा देव के उपदेशों का असर समाज पर होने लगा और जो मुंडा एवं जनजाति आदिवासी ईसाई बन गए थे वे पुनः हिन्दू धर्म में लौटने लगे।


ईसाई प्रचारकों को ये कहाँ सहन होने वाला था। उन्होंने ईसाई ब्रिटिश सरकार को कहकर बिरसा देव को भीड़ इकट्ठी कर उन्हें आन्दोलन करने से मना कर दिया।


बिरसा देव का कहना था कि मैं तो अपनी जाति को अपना धर्म सिखा रहा हूं। इस पर पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार करने का प्रयत्न किया लेकिन गांव वालों ने उन्हें छुड़ा लिया। शीघ्र ही वे फिर गिरफ़्तार करके दो वर्ष के लिए हज़ारीबाग़ जेल में डाल दिये गये। 


समाज में गुस्सा बढ़ते देख उन्हें यह कहकर छोड़ा दिया गया कि वे ईसाइयों के खिलाफ प्रचार नहीं करेंगे और नही अपने धर्म का प्रचार करेंगे।


बिरसा देव नहीं माने उन्होंने संगठन बनाकर अपने धर्म का प्रचार जारी रखा। परिणामस्वरूप उन्हें फिर गिरफ्तार करने के आदेश जारी हुए। किन्तु बिरसा देव इस बार हाथ नही आये। उन्होंने अपने नेतृत्व में ईसाई अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंककर नए आदि सनातन हिन्दू राज्य की स्थापना का संकल्प लिया। 


24 दिसम्बर 1899 में उन्होंने सीधा आंदोलन प्रारम्भ कर दिया। ईसाई अंग्रेजी शासन के कई पुलिस थानों में आग लगा दी। हजारों ईसाई धर्म भ्रष्टों को मौत के घाट उतार दिया।


अंग्रेज ईसाई सेना से सीधी लढाई सुरु हो गयी। उन्होंने खूब संघर्ष किया। उनके तीर कमान हजारों अंग्रेजी ईसाई सेना की छाती को छेदने लगे। चारों ओर एक ही आवाज गूंजने लगी- हर हर महादेव। विरसा देव की जय। 

तीर और गोलियों का सामना था। बिरसा देव के कई साथी शहीद हो गए।


वही दुर्भाग्य समाज के ही दो लोगों ने धन के लालच में बिरसा देव को गिरफ्तार करवा दिया।


ईसाई अंग्रेजों को डर था कि उन्हें फांसी देने पर जनजाति समाज भड़क सकता है। इसलिए 9 जून 1900 में जेल में ही चुपचाप ईसाइयों ने उन्हें भोजन में जहर देकर मार दिया।बिरसा देव वीरगति को प्राप्त हुए। 

पूरे झारखंड क्षेत्र तथा बाद में उनकी वीरता के किस्से सारे देश भर में साहित्य और लोकगीतों के माध्यम से गूँजने लगे।


हम सभी को यह समझना होगा कि हमारे पूर्वजों ने अपने धर्म की रक्षा के लिए महान बलिदान दिए। शिवाजी के पुत्र संभाजी ने,सिख धर्म गुरु अंगददेव ने, गुरु तेगबहादुर ने, गुरु पुत्र फतेहसिंह और जोरावर सिंह ने  ईसाई और मुस्लिमों के अति अत्याचार सहे लेकिन उन्होंने अपना धर्म नही छोड़ा। 


बिरसा देव मुंडा भी इसी भारतीय परंपरा के महान अवतारी पुरुष थे। उन्होंने भी अनेक कष्ट सहे, वे शहीद हुए लेकिन  ईसाई धर्म को और उनके अत्याचार को स्वीकार नही किया। उन्होंने अपने धर्म का प्रचार कर उसकी महानता को समाज में स्थापित किया।


बीरसा देव के बिना हमारा मूल सनातन आदि धर्म हिंदु अधूरा है।

विरसा देव हमे पुकार रहै है बंधुओं! बाबादेव आदिदेव महादेव में, प्रभु राम, भक्त शबरी में विश्वास करनेवाले हम वन निवासी मिलकर दोबारा सनातन धर्म की पताका लहराए।


बिरसा देव की जय, 

जय आदि मूल धर्म सनातन।आदिदेव महादेव की जय।

हर हर महादेव।


म.म.स्वामी प्रणवानंद सरस्वती-वृन्दावन

भक्त शबरी और प्रभु राम

 भक्त भील शबरी और प्रभु श्रीराम।


यह त्रेता युग की बात है। विश्व में नरभक्षी आसुरी आतंक बढ़ गया था। इस समय विश्व को बचानेवाली किसी ईश्वरीय शक्ति की आवश्यकता थी। इस आंतक से मानव को मुक्ति दिलाने के लिए अयोध्या में प्रभु श्रीराम का अवतरण हुआ।  


उनके मां का नाम था कौसल्या और पिता का नाम था दशरथ। वे अयोध्या के सम्राट थे। उनकी और भी 2 पत्नियां थी- कैकयी और सुमित्रा। सुमित्रा से हुए लक्ष्मण और कैकई से हुए भरत- शत्रुघ्न। चारों भाइयों में अपार प्रेम था। राम जी सब से बड़े थे।


राम जी चारों भाईयों के साथ वन में स्थित वनवासी गुरुकुल से गुरु वशिष्ठ जी के सान्निध्य में अध्ययन कर अयोध्या लौट आए। उनका ऋषि विश्वामित्र की कृपा से मिथिला राज्य के राजा जनक की पुत्री सीता जी से विवाह हुआ।


राजा दशरथ राम जी को अयोध्या का राजा बनाना चाहते थे। उनके राज्य अभिषेक की तयारीयाँ होने लगी। नगर सझाया जाने लगा। लेकिन एक विघ्न उपस्थित हो गया। कैकयी अपने पुत्र भरत को राजा बनाना चाहती थी। उन्होंने पुराने 2 वचन के बदले राजा से भरत को राज्य और राम को वनवास मांगा। यह बात राम जी को मालूम पड़ी। राम किंचित भी दुःखी नही हुए। वे प्रसन्नता पूर्वक 14 वर्ष के लिए वनवासी जीवन स्वीकार कर चलने को तत्पर हो गए। सीता जी का राम जी के साथ अत्यधिक प्रेम था। वह राम जी के बिना नही रह सकती थी। वह भी वनवासी वेश में राम जी के साथ जाने को तैयार हो गई। लक्ष्मण का भी भाई राम के साथ प्रेम था, वे भी राम को अकेले वन भेजना नही चाहते थे। वे भी राम जी के साथ हो लिए।


तिन्हों वनवासी वेश में वनवासियों के मध्य धनुष बाण धारण कर वन में कन्द, मूल, फल को खाकर वनवासी जीवन व्यतीत करने लगे। 


एक समय राम जी गोदावरी के तट पर दंडकवन पंचवटी में रह रहे थे। उनका वनवास का समय पूरा होने को था। वनवास के अंतिम समय में एक विघ्न उपस्थित हो गया। लंका के राजा अत्याचारी रावण ने सीताजी का अपहरण कर लिया। सीता जी पतिव्रता थी। वह राम जी को छोड़कर किसी भी पराये पुरुष को कभी देखती नही थी। वह बहुत दुःखी हो गई।


सीता जी को कुटिया में न पाकर राम जी भी बहुत दुखी हुए। वे सीता जी को खोजते फिर रहे थे लेकिन उनका उन्हें कुछ भी पता नही चला। 


राम जी सीता को ढूंढते ढूंढते  सिद्ध ऋषि मतंग के आश्रम में गए। आश्रम में शबरी राह रही थी। मतंग ऋषि ने शरीर छोड़ दिया था। शबरी उनकी शिष्या थी। वह परम धार्मिक, गुरु भक्त साधिका थी। 


मतंग ऋषि ने अपना शरीर छोड़ते समय शबरी को आदेश दिया था की- इस धरा पर भगवान का अवतार हो चुका है। वे प्रभु श्रीराम तुम्हारे आश्रम पर तुम्हें मिलने आएंगे, तुम्हारी साधना पूर्ण होगी। प्रभु राम के दर्शन होने तक तुम्हे इस शरीर में रहना होगा। इतना कहकर मतंग ऋषि ने अपना शरीर छोड़ दिया। 


तभी से भक्त शबरी राम जी की व्याकुलता पूर्वक राह देख रही थी। वह एक महान साधिका, गुरु की आज्ञाकारी तथा राम भक्त थी। उन्होंने गुरु मतंग ऋषि की निष्काम भाव से सेवा की थी। वह साधन आरूढ़ थी। 


मतंग ऋषि भी प्रकृति का महान आदि धर्म सनातन के सिद्ध पुरुष थे। सकल सिद्धियां उनके पास थी लेकिन वे कभी उनका उपयोग नही करते थे। 


गुरुभक्त शबरी सांवली रंग की, बहुत भोली और पवित्रमना थी। उनमे भी बहुत सी सिद्धियां थी लेकिन वह उसका कभी प्रदर्शन नही करती थी। उनके माता पिता भी ऋषि मुनियों के सेवक थे। सेवा और भक्ति के संस्कार उनको उनके परिवार से मिले थे। प्रेम तो उनके हृदय का अमर भाव था।


वह आजीवन अपने गुरु की सेवा का व्रत लेकर गुरु भक्ति में डूब चुकी थी। गुरु ही उनके जीवन की पूजा पाठ, साधना, सिद्धि और मोक्ष सबकुछ थे। 


भक्त शबरी प्रभु के चिन्तन में डूब गई। प्रभु के विरह में कभी रोती, प्रभु के संयोग का अनुभव कर कभी हसती, कभी प्रेम में उन्मत्त होकर गाती, नृत्य करती।


प्रतिदिन वह प्रभु का रास्ता देखती। उन्हें नही मालूम था प्रभु कब और किस दिशा से आएंगे। वह हर दिन सभी दिशाओं के रास्ते स्वच्छ करती। क्या पता प्रभु का कब और किस दिशा से आगमन हो। 


वह प्रतिदिन प्रभु के लिए वन से फल, कंद, मूल आदि ले आकर प्रतीक्षा करती थी। उनको जब कोई बहुत मीठा फल मिल जाता तो वह उसको खाती नही थी, उसको वह प्रभु के लिए रख देती थी। 


उनको मालूम हो गया था इस वन में प्रभु का आगमन हो गया है। वे कभी भी उनकी कुटिया में आ सकते है। वह उनके स्वागत में बहुत आतुर हो रही थी। 


उन्होंने अनेको प्रकार के कंद, मूल, फल प्रभु के लिए संग्रहित कर रखे थे। वह समय बेर के फल का था। बेर के फल भी उन्होंने संग्रहित कर रखे थे।


भगवान राम जी का आगमन हो गया। लखन तथा अनेको ऋषि मुनि भी प्रभु के साथ थे। आज शबरी धन्य हो गयी। उन्होंने कुटिया के द्वार पर प्रभु का स्वागत किया। जल से उनके पैर धोए, हाथ धोए। अपने पल्लू से उनके हाथ और पैर पोछे। शबरी प्रभु को कुटिया के अंदर ले आयी। उन्होंने मतंग ऋषिके चरण पादुका के दर्शन कराए। प्रभु शबरी के आसन पर बैठ गए। 


शबरी ने प्रभु को कंद,मूल,फल खिलाये। उन में बेर भी थे। लेकिन बेर के फल जूठे थे। मीठा देखने के लिए वे शबरी के द्वारा चखे हुये थे। 


प्रभु राम भक्त शबरी के जूठे बेर प्रेम से खाने लगे। शबरी धन्य हो गयी। गुरु का संकल्प भी पूरा हो गया। प्रभु ने उन्हें नवधा भक्ति का उपदेश किया। शबरी अब पूर्णकाम हो चुकी थी, उन्हें प्रभु की अविरल भक्ति प्राप्त हो गयी। 


उन्होंने प्रभु से प्रार्थना की-प्रभु! आप पम्पा सरोवर जाइए। वहां पर आप को हनुमान और सुग्रीव मिलेंगे। उनसे आप की दोस्ती होगी। वे आप का सहयोग करेंगे। आप की रावण पर विजय होगी और आप सीता को लेकर अयोध्या चले जाएंगे। मानो भक्त शबरी भगवान को मार्ग दिखा रही हो, उनका भविष्य बता रही हो।


प्रभु राम शबरी से विदा लेकर पम्पा सरोवर चले गए। वहां पर जनजाती समूह के राजा सुग्रीव और हनुमान जी मिले।


इधर शबरी प्रभु के भजन में डूब गयी। अब उनको अन्य कोई प्रयोजन शेष नही रहा। उन्होंने निरन्तर नवधा भक्ति द्वारा अपने को प्रभु के मार्ग पर समर्पित कर दिया और वह प्रभु को प्राप्त हो गयी।


जय राम की, जय भक्त शबरी मैय्या की।

स्वामी प्रणवानंद सरस्वती- वृन्दावन।

रैवत राजा और पौराणिक विज्ञान कथा

रात्रि के अंतिम प्रहर में एक बुझी हुई चिता की भस्म पर अघोरी ने जैसे ही आसन लगाया, एक प्रेत ने उसकी गर्दन जकड़ ली और बोला- मैं जीवन भर विज्ञान का छात्र रहा हूँ और जीवन के उत्तरार्ध में तुम्हारे पुराणों की विचित्र कथाएं पढ़कर भ्रमित होता रहा। यदि तुम मुझे पौराणिक कथाओं की सार्थकता नहीं समझा सके तो मैं तुम्हे भी इसी भस्म में मिला दूंगा।
अघोरी बोला- एक पौराणिक कथा सुनो! एक राजा थे रैवत। उनकी एक बेटी थी रेवती। वे उनसे बहुत प्रेम करते थे। वे चाहते थे कि योग्य वर से उनका विवाह हो। उन्होंने सोचा की सब से बड़े ज्योतिषी ब्रह्माजी है। वे ब्रह्म लोग में रहते है। वे ही मेरी बेटी के विषय में जानते है कि मेरी बेटी के लिए योग्य वर कौन होगा। वे अपनी बेटी को लेकर ब्रह्म लोग गए। वहां जाकर वे ब्रह्मा जी से मिलना चाह रहे थे लेकिन उन्होंने देखा ब्रह्मा जी एक संगीत सभा में बैठे संगीत सुन रहे है। वे उनके मिलने की प्रतीक्षा करने लगे। वे ब्रह्माजी से पूर्व परिचित थे। राजा रैवत पृथ्वी के बड़े शक्ति शाली राजा थे।
गायन समाप्ति के उपरांत ब्रह्मदेव ने राजा को देखकर पास बुला लिया और पूछा- कहो, कैसे आना हुआ? 
राजा ने कहा- मेरी पुत्री के लिए किसी वर को आपने बनाया अथवा नहीं?
ब्रह्मा जी जोर से हंसे और बोले- जब तुम आये तबतक तो नहीं, पर जिस कालावधि में तुमने यहाँ गन्धर्वगान सुना उतनी ही अवधि में पृथ्वी पर २७ चतुर्युग बीत चुके हैं और २८ वां द्वापर समाप्त होने वाला है, अब तुम वहां जाओ और कृष्ण के बड़े भाई बलराम से इसका विवाह कर दो, अच्छा हुआ की तुम रेवती को अपने साथ लाए जिससे इसकी आयु नहीं बढ़ी।
इस कथा का वैज्ञानिक संदर्भ समझो- आर्थर सी क्लार्क ने आइंस्टीन की थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी की व्याख्या में एक पुस्तक लिखी है- मैन एंड स्पेस, उसमे गणना है की यदि 10 वर्ष का बालक यदि प्रकाश की गति वाले यान में बैठकर एंड्रोमेडा गैलेक्सी का एक चक्कर लगाये तो वापस आनेपर उसकी आयु ६६ वर्ष की होगी पर धरती पर 40 लाख वर्ष बीत चुके होंगे. 
यह आइंस्टीन की time dilation theory ही तो है जिसके लिए जॉर्ज गैमो ने एक मजाकिया कविता लिखी थी- 
There was a young girl named Miss Bright,
Who could travel much faster than light
She departed one day in an Einstein way
And came back previous night
प्रेत यह सुनकर चकित था, बोला- यह कथा नहीं है, यह तो पौराणिक विज्ञान है।
 हमारी सभ्यता इतनी अद्भुत रही है, अविश्वसनीय है. तभी तो आइंस्टीन पुराणों को अपनी प्रेरणा कहते थे. मैं अब सभी शवों और प्रेतों को यह विज्ञानकथा बताऊंगा ताकि वो राष्ट्रीय शरीर धारण कर सकें. अनेक वामपंथी यह कहते फिरते हैं की यदि इतना ही उन्नत था हमारा प्राचीन तो प्रमाण क्या है? अब उनको देता हूँ यह प्रमाण. 
अघोरी मुस्कुराता रहा और प्रेत वायु में विलीन हो गया.
हम विश्व की सबसे उन्नत संस्कृति हैं यह विश्वास मत खोना, आपस में जाति, मत, पूजा पद्धति को लेकर उलझने वालों को देश का शत्रु मानो.

स्वामी प्रणवानंद सरस्वती

 बौद्ध धर्म का उत्थान एवं पतन


भारत में बौद्ध धर्म का जन्म ईसा पूर्व ६ वी शताब्दी को हुआ। किन्तु जन्म के 500 वर्ष बाद ही उसका क्षरण सुरु हो गया था। कालक्रम में भारत से बौद्ध धर्म लगभग समाप्त हो चुका था। परन्तु विश्व के अन्य जापान, कोरिया, कम्बोदया, बर्मा, तिबत आदि भागों में बौद्ध धर्म का प्रसार एवं विकास होता रहा। 


बौद्ध धर्म का विकास ईसा पूर्व ६ वी शताब्दी से प्रारम्भ होकर सम्राट अशोक के साम्राज्य तक राज्यधर्म के रूप में होता रहा। वह समस्त भारत के साथ चीन, जापान, लंका, अफगानिस्तान, सिंगापुर, थाईलैंड और एशिया के पश्चिमी देशों तक फैल गया। इतिहास प्रसिद्ध हिन्दू सम्राट् ने कलिंग युद्ध के पश्चात बौद्ध धर्म ग्रहन कर इसे राजधर्म बना दिया। 


कुछ विद्वानों के अनुसार बौद्ध धर्म भिक्षुओं के नैतिक पतन के कारण ही बौद्ध धर्म का पतन हुआ है किन्तु यह आंशिक सत्य है। यह भी उन कारणों में से एक है जिस से पतन हुआ। प्रत्येक धर्म कि शुरुआत अच्छे उद्देश्यों से होती है किन्तु बाद में इसमे तरह तरह की भ्रांतिया आ जाती है वैसे ही बौद्ध धर्म के साथ भी हुआ था। 


बौद्धकाल ने ना केवल बृहद विकास का दौर देखा था, अपितु सशक्त प्रथम केन्द्रिय सत्ता भी देखी है। ईस काल में भारतवर्ष् अध्यात्म एवम ज्ञान का केन्द्र बन गया था। बौद्ध धर्म के तीव्र विस्तार से उस समय धार्मिक एवम राजनैतिक के अतिरिक्त आर्थिक विकास भी खूब हुआ। भारत में बौद्ध धर्म के पतन के अनेक कारण गिनाये जाते हैं।


बौद्ध धर्म के विनाश का पहला बाह्य कारण है- बाह्य आक्रमणों ने इसको समाप्तप्राय कर दिया। इस्लाम ने जितना बौद्ध और सनातन धर्म का नुकसान किया उतना और किसी कारण से नही हुआ।


मध्य एशिया से आये श्वेत हुन तथा मंगोल, मुस्लिम शासक मुहम्मद बिन कासिम, मेह्मुद गजनवी तथा मोहमुद गौरी ईत्यादि को माना जा सकता है। भारत के उत्तरी पूर्व भाग से आने वाले श्वेत हुन तथा मंगोलो के आक्रमनो से भी बौद्ध धर्म को बहुत हानि हुई। मुहम्मद बिन कासिम का सिन्ध पर आक्रमन करने से भारतीयों का पहली बार् इस्लाम से परिचय हुआ। सिन्ध का शासक दाहिर एक बौद्ध शासक था। राजा दाहिर को मुहम्मद ने हरा दिया। मेहमद गजनवी ने १० वी शताब्दी ईसवी में बौद्ध एवं सनातनी दोन्हों धर्मो के धार्मिक स्थलो को तोडा एवं सम्पूर्ण पंजाब क्षेञ पर कब्जा कर लिया। इस प्रकार से बहुत से बौद्ध नेपाल एवम तिब्बत की ओर भाग गये। अंग्रेज अफसर ह्चीसन के अनुसार तुर्किश जनरल मुहम्मद बख्तियार खिल्जी के द्वारा भी बडी मात्रा में बौद्ध भिक्खुओ का कत्लेआम किया गया था।  नालन्दा जैसे महान विश्व विद्यालय को इन्होंने ही जला डाला और लाखों हिन्दू बौद्ध विद्वानों को मार डाला। कहते है 6 महीने तक नालन्दा जलता रहा। सन्यासी नागा महात्माओं के साथ बौद्ध भिक्षुओं की दोस्ती थी। उनकी एक महानिर्वाणी अखाड़े में लामा मढ़ी थी। उनके साथ तिब्बती बौद्ध भीखू उनमें वे रहते थे। तिब्बती भाषा में सन्यासी को लामा कहते है। लेकिन नालन्दा के नष्ट होने पर वे इतने अधिक दुःखी हुए की वे अंतिम रूप से तिब्बत चले गये। आज भी महानिर्वाणी अखाड़े के अंतर्गत कई मढ़ियों में एक लामा मढ़ी भी है लेकिन अब उसमें कोई नही आता। बहुत दिनों तक कुंभ पर्व पर उनकी जगह आरक्षित रखी जाती रही। अब समय आ गया है कि पुनः वह लामा मढ़ी जीवित हो और सभी सन्यासी, भिक्षु लामा, वैष्णव, मुनि एक जगह आ जाये।


मंगोल चंगेज खान ने सन १२१५ में अफगानिस्तान एवम समस्त मुस्लिम देशों में तबाही मचा दी थी। उसकी मौत के बाद उसका साम्राज्य दो भागो में बट गया। भारतीय सीमा पर चगताई ने चगताई साम्राज्य खडा किया तथा ईरान प्लातु पर हलाकु खान ने अपना साम्राज्य बनाया। जिसमे हलाकु के पुत्र अरघुन ने बौद्ध धर्म अपना कर इसे अपना राजधर्म बनाया था। उसने मुस्लिमों की मस्जिदो को तोड्कर स्तुप निर्माण किये। तैमुरलङ ने १४ वी सदी में लगभग सारे पश्चिम एवम मध्य एशिया को जीत लिया था, तेमुर ने बहुत से बुद्धिस्ट स्मारक तोडे एवम बौद्धों को मारा। इससे बौद्ध धर्म को बहुत नुकसान हो गया, यह इस्लामिक आक्रमण ही वास्तविक बौद्ध धर्म के भारत से लोप होने का कारण बना, क्योंकि उनमें अहिंसावादी होने के कारण लढकर जीवित रहने का साहस नही था। सनातन धर्म अपने अस्तित्व के लिए युद्ध से स्वयं की रक्षा की प्रेरणा देता है।


दूसरा कारण है आंतरिक पुनः सनातन धर्म का उदय।

भले ही बौद्ध धर्म राज धर्म था लेकिन बहुसंख्यक प्रजा सनातनी वैदिक थी। सनातन धर्म से बौद्ध धर्म का कोई वैचारिक मतभेद से अधिक कोई खास वैर भी नही था। बौद्ध धर्म में भी अधिकतर उच्च कुलीन क्षत्रिय तथा कुछ मध्यम वर्गीय लोग सम्मिलित थे। शिक्षित ब्राह्मण समुदाय ने भी बौद्ध धर्म बढ़ाने में अधिक योगदान दिया।  


कुछ विद्वानों के कथनानुसार भारतवर्ष से बौद्ध धर्म के लोप का कारण 'सनातन धर्म का पुनः उत्थान' ही था। बौद्ध धर्म के पूर्व सभी वैदिक सनातन धर्म का पालन करते थे। स्वयं बुद्ध भी सनातनी क्षत्रिय कुल से थे। अतः स्वाभाविक रूप से बौद्ध विचार धारा का विस्तार  सनातन धर्म के स्थान पर हुआ।


 मौर्यकाल में सम्राट अशोक ने बौध्द धर्म को अपना राजधर्म बना लिया था। इसके आचरनानुसार वैदिक बलिप्रथा पर भी रोक लग गई थी। बौद्ध धर्म का काफी विस्तार हुआ। 


देवानाप्रिय अशोक ने पूरे जम्बूद्विप में लगभग ८४००० हजार स्तुप बनवाये थे जिसमे साची, सारनाथ ईत्यादि थे। पुश्यमित्र शुङ सनातनी वैदिक विचार वाला सेनापति था। वाममार्गी आचरण से प्रजा का आकर्षण भी बौद्ध धर्म से कम हो चुका था। बौद्ध धर्म के प्रभाव से तत्कालीन वैदिक विद्वानों ने ज्ञान परक उपनिषदों को प्रचार का अंग बना लिया। प्राचीन कर्मकांड के स्थान पर ज्ञान और भक्ति- मार्ग का प्रचार ही बौद्ध धर्म का विकल्प सम्भव था। कुमारिल भट्ट और शंकराचार्य जैसे विद्वानों ने मीमांसा और वेदांत जैसे दर्शनों का प्रतिपादन किया। वही बौद्ध धर्म के तत्त्वज्ञान के स्थान पर रामानुज, विष्णु स्वामी वल्लभ आदि वैष्णव सिद्धांतवाले विद्वानों ने भक्ति- मार्ग द्वारा बौद्धों के व्यवहार- धर्म से बढ़कर प्रभावशाली तथा छोटे से छोटे व्यक्ति को अपने भीतर स्थान देने वाला विधान का प्रचारित किया। अनेक हिंदू राजा भी इन 

धर्म- प्रचारकों की सहायतार्थ खडे़ हो गए। इस सबका परिणाम यह हुआ कि जिस प्रकार बौद्ध धर्म अकस्मात् बढ़कर बडा़ बनकर देश भर में छा गया, उसी प्रकार वह निर्बल पड़ने लगा, तो उसकी जडे उखड़ते देर न लगी।


आज बौद्ध धर्म अनेक दूरवर्ती देशों में फैला हुआ है और जिसके अनुयायियों की संख्या विश्व में तीसरे स्थान पर है किन्तु भारत में अधिकांश अन्य धर्म वालों से बहुत कम है। इसका भारत से इस प्रकार लोप हो जाना बड़ा हि दुर्भाग्यजनक हुआ है। लेकिन १४ अक्तुबर १९५६ को दलितो के नेता डा.भीमराव अम्बेड्कर ने हिन्दु धर्म में व्याप्त छूआछुत से तङ आकर अपने लगभग 5 लाख अनुयायियो के साथ भारतीय आर्य बौद्ध धर्म को अपनाकर उसकी उसी जन्मभूमि पर पुनर्जीवित कर दिया। आज महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश एवम देशभर के दलीतों में बौद्ध धर्म बढ़ रहा है।


इस विवेचन से हमे इस निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए कि संसार के सभी प्रमुख धर्म लोगों को निम्न स्तर के जैविक मूल्यों से निकलकर उच्च मूल्यों को प्राप्त करने के उद्देश्य से स्थापित किए गए थे। पारसी, यहूदी, ईसाई, इस्लाम आदि मजहब आज चाहे जिस दशा में हों पर आरंभ में सबने अपने अनुयायियों को जीवन के श्रेष्ठ मुल्यो पर चलाकर उनका कल्याण साधन ही किया था। पर काल- क्रम से उन में भी कुछ व्यक्तियों या समुदाय विशेष की स्वार्थपरता के कारण विकार उत्पन्न हुए है और अब उनका पतन होने लगा है। 


बुद्ध इस बात को समझते थे। इसलिए उन्होंने यह व्यवस्था कर दी है कि प्रत्येक सौ वर्ष पश्चात् संसार भर के बौद्ध प्रतिनिधियों की एक बडी़ सभा की जाए और उसमें अपने धर्म तथा धर्मानुयायियों की दशा पर पूर्ण विचार कर उसमें जो दोष जान पडे़ उनको दूर किया जाए और नवीन समयोपयोगी नियमों को प्रचलित किया जाए।

बौद्ध धर्माचार्यों द्वारा इसी बुद्धिसंगत व्यवस्था पर चलने और रूढि़वादिता से बचे रहने का यह परिणाम हुआ कि बौद्ध धर्म कई सौ वर्ष तक निरंतर बढ़ता रहा। संसार के दूरवर्ती देशों के निवासी आग्रहपूर्वक इस देश में आकर उसकी शिक्षा प्राप्त करके अपने यहाँ उसका प्रचार करते रहे। जीवित और लोक- कल्याण की भावना से अनुप्राणित धर्म का यही लक्षण है कि वह निरर्थक या देश- काल के प्रतिकूल रीति- रिवाजों के पालन का प्राचीनता या परंपरा के नाम पर वह आग्रह नहीं करता। सदा आत्म- निरीक्षण करता रहते रहना चाहिए। इसलिए बुद्ध की सबसे बडी़ शिक्षा यही है कि-मनुष्यों को अपना धार्मिक, सामाजिक आचरण सदैव कल्याणकारी और समयानुकूल नियमों पर आधारित रखना चाहिए। जो समाज, धर्म इस प्रकार अपने दोषों, विकारों को सदैव दूर करते रहते हैं, उनको ही 'जिवित' समझना चाहिए और वे ही संसार में सफलता और उच्च पद प्राप्त करते हैं।


वर्तमान समय में भी हिंदू धर्म को अपनी त्रुटियों को आत्म- निरीक्षण द्वारा सर्वथा त्याग दिया जाना आवश्यक है। अधिकांश लोगों का दृष्टिकोण तो ऐसा सीमित हो गया है कि वे किसी अत्यंत साधारण प्रथा- परंपरा को भी, जो इन्हीं सौ-दो सौ वर्षों में किसी कारणवश प्रचलित हो गई है उसको छोड़ना 'धर्म विरुद्ध समझते' हैं। इस समय वैवाहिक अपव्यय, छुआछूत, चार वर्णों के स्थान पर हजारों जातियाँ, अकर्मण्यता आदि अनेक हानिकारक प्रवृत्तियाँ हिन्दू समाज में घुस गई हैं। पर जैसे ही उनके सुधार की बात उठाई जाती है, लोग 'धर्म के डूबने की पुकार, मचाने लग जाते हैं।

बुद्ध भगवान् के उपदेशों पर ध्यान देकर हम इतना समझ सकते है कि- वास्तविक धर्म आत्मोत्थान और चरित्र- निर्माण में है, न कि सामाजिक लौकिक बाह्य आडम्बर। हम इस तथ्य को समझ लें और परंपरा तथा रुढि़यो के नाम पर जो कूडा़-कबाड़ हमारे समाज में भर गया है उसे साफ कर डालें तो हमारे सब निर्बलताएँ दूर करके प्राचीन काल की तरह हम फिर उन्नति की दौड़ में अन्य जातियों से अग्रगामी बन सकते हैं।

आचार्य स्वामी प्रणवानंद सरस्वती