शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

महाशिव रात्री का महातपस्वी आदि सनातन गुरुदर्श भील

 महाशिवरात्री का आदि तपस्वी आदि सनातन गुरुदर्श भील-


हिमालय की पवित्र तपोभूमि हरिद्वार में बिल्व वन में एक वनवासी भील सपरिवार निवास करता था। उसका नाम था गुरुदर्श।


वह गंगा के पावन तट पर तपस्वियों के मध्य में सघन वन में रहकर अपने परिवार का भरण पोषण करता था। उसकी आजीविका थी कंद, मूल, फल तथा शिकार। 


आज उसके घर में खाने को कुछ नही था। वह वन से वन्य आहार लेने के लिए हाथ में हसिया, फरसा और धनुष बाण लेकर निकल पड़ा। कुछ आहार मिलें तभी घर के बाल बच्चे पत्नी भोजन करेंगे, नही तो सभी भूखे सोएंगे। इसलिए वह तन्मयता से भोजन खोजने लगा।


उन्होंने दिनभर बहुत ढूंढा लेकिन शिकार अथवा कंद, मूल,फल नही मिले। दिन ढल चुका था। रात का आगमन हो गया था। रात ने वन को अंधेरी चादर में ढक दिया। परन्तु वह हताश नही हुआ। उन्होंने सोचा रात में अवश्य कोई न कोई खरगोश, हिरन अथवा जंगली सुअर मिलेगा।


वह बिल्व वन में एक छोटे से जलाशय के किनारे घने बिल्व वृक्ष पर बैठ गया। उसके हाथ मे तीर, कमान और पीठ पर पर तूणीर था, हाथ में रस्सी से बंधा एक पानी का पात्र भी। कमर में तथा माथे पर एक गमछा लपेट रखा था। 


वह बहुत एकाग्रता से शिकार की प्रतीक्षा करने लगा।


दैवयोग से बिल्व वृक्ष के नीचे एक शिव लिंग था। वह सिद्ध पुरुषों द्वारा सेवित सिद्ध शिव लिंग था। पर अंधकार और पत्तों में छिपा होने के कारण दिखाई नही दे रहा था। 


शिव की महिमा अद्भुत है। लोटा हिलने से थोड़ा सा जल शिव लिंग पर गिरा। शिकार को देखने के लिए आंखों के सामने के बिल्व पत्र हटाते हुए तोड़कर नीचे गिरा दिये। अनजाने में बिल्व पत्र भी शिवलिंग पर गिरे। गुरु प्रिय का चित्त कुछ शुद्ध हो गया और अनायास मुख से निकला- ॐनम: शिवाय। 


अनजाने में चढ़ा जल, बिल्वपत्र और  शिव मंत्र के जप से गुरु प्रिय भील की प्रथम प्रहर की पूजा पूर्ण हो गयी।


रात का प्रथम प्रहर व्यतीत होने के पहले एक मादा हिरण जलाशय पर पानी पीने के लिए आयी | उसे देखकर भील ने धनुष पर बाण चढ़ाया। वह बान छोड़ने ही वाला था। लेकिन एक अद्भुत घटना घटी। शिव लिंग के प्रभाव से हिरणी में समझ और बोलने की शक्ति का उदय हो गया। 


हिरनी ने पत्तों की खड़खड़ाहट सुनकर ऊपर की ओर देखा और वह समझ गयी, यह  मुझे मार देगा।  


हिरनी ने भयभीत होकर शिकारी से  कांपते स्वर में कहा- ‘मुझे मत मारो। शिकारी ने कहा- वह और उसका परिवार भूखा है इसलिए वह उसको नहीं छोडेगा। हिरणी ने वादा किया कि वह अपने बच्चों को अपने स्वामी को सौंप कर लौट आयेगी। तब वह उसका शिकार कर ले। 


हिरनी ने शिव की कृपा से शिकारी को विश्वास दिलाया कि जैसे सत्य पर ही धरती टिकी है। सत्य से ही समुद्र मर्यादा में रहता है। सत्य से ही झरनों से जल-धाराएँ गिरा करती हैं। वैसे ही वह भी सत्य बोल रही है।

शिकारी को शिव जी की कृपा से उस की बात पर विश्वास हुआ और दया का भाव भी उसमें उदित हुआ। उसने हिरनी को कहा- ‘ तुम जल्दी लौट आओ' उस ने हिरनी को जाने दिया ।


द्वितीय प्रहर का आरंभ हो गया।वह हिरनी के वापस आने की प्रतीक्षा करने लगा।

थोड़े समय बाद एक और हिरनी वहां पानी पीने आयी। शिकारी सावधान हो गया। तीर साधने लगा और ऐसा करते हुए, उसके हाथ के धक्के से पहले की ही तरह थोडा जल और कुछ बेलपत्र नीचे शिवलिंग पर जा गिरे और मुख से निकला ॐ नमः शिवाय। अनायास ही शिकारी की द्वितीय प्रहर की पूजा भी हो गयी। इस हिरनी ने भी भयभीत हो कर, शिकारी से जीवनदान की याचना की। शिव लिंग के प्रभाव से हिरनी ने उसे लौट आने का वचन दिया और समझाया कि जो वचन दे कर पलट जाता है, उसका अपने जीवन में संचित पुण्य नष्ट हो जाता है। उस शिकारी ने पहले की तरह हिरनी के इस वचन पर विश्वास कर उसे जाने दिया।

अब  इस चिंता से व्याकुल भी हो रहा था कि शायद ही उन में से कोई हिरन लौट कर आये।अब मेरे परिवार का क्या होगा।


तृतीय प्रहर का आरंभ हो गया। इतने में ही उसने जल की ओर आते हुए एक हिरण को देखा। उसे देखकर शिकारी अति प्रसन्न हुआ। अब फिर धनुष पर बाण चढाने लगा, आश्चर्य वैसे ही उसके हाथ हिलने से जल और बिल्व पत्र शिव लिंग पर गिरे और मुख से निकला ॐ नमः शिवाय। बस उसकी तीसरे प्रहर की पूजा भी स्वतः ही संपन्न हो गयी। 


पत्तों के गिरने की आवाज़ से उसने शिकारी को देखा और पूछा –“ तुम क्या करना चाहते हो ?” वह बोला-“अपने कुटुंब को भोजन देने के लिए तुम्हारा वध करूंगा ” । शिव लिंग के सान्निध्य से इस हिरण का भी चित्त शुद्ध हो गया। वह मृग प्रसन्न हो कर कहने लगा– “मैं धन्य हूँ कि मेरा यह शरीर किसी के काम आए, परोपकार से मेरा जीवन सफल हो जाये। पर कृपा कर अभी मुझे जाने दीजिये, मैं अपने बच्चों को उनकी माता के हाथ में सौंप कर, उन सबको धीरज बंधा कर यहाँ लौट आऊंगा । ” शिकारी का ह्रदय, उसके पापपुंज नष्ट हो जाने से अब और शुद्ध हो गया।इसलिए वह विनयपूर्वक बोला –‘ जो-जो यहाँ आये, सभी बातें बनाकर चले गये और अभी तक नहीं लौटे, यदि तुम भी झूठ बोलकर चले जाना चाहते हो तो चले जाओ। अब मेरे परिजन प्रभु को समर्पित। 


इस हिरन ने भी यह कहते हुए उसे अपने सत्य बोलने का विश्वास दिलाया कि यदि वह लौटकर न आये; तो उसे वह पाप लगे जो उसे लगा करता है जो सामर्थ्य रहते हुए भी दूसरे का उपकार नहीं करता। शिकारी ने उसे भी यह कहकर जाने दिया कि ‘शीघ्र लौट आना ।


रात्रि का अंतिम चतुर्थ प्रहर शुरू होते ही शिकारी के हर्ष की सीमा नही रही क्योंकि उसने उन सब हिरन-हिरनियों को अपने बच्चों सहित एक साथ आते देख लिया। उन्हें देखते ही उसने अपने धनुष पर बाण रखा । पहले की ही तरह उसके हिलने से लोटे का जल शिवलिंग पर गिरा। सामने के बिल्व पत्र तोड़कर नीचे गिरा दिए। वह भी शिव लिंग पर गिरे। मुख से निकला ॐ नमः शिवाय। उसकी चौथे प्रहर की पूजा भी  संपन्न हो गयी।


उस शिकारी के शिव कृपा से सभी पाप भस्म हो गये। इसलिए वह सोचने लगा-‘ओह ये पशु धन्य हैं जो ज्ञानहीन हो कर भी अपने शरीर से परोपकार करना चाहते हैं, लेकिन धिक्कार है मेरे जीवन को कि मैं इनको मारकर खाना चाहता हूँ। मैं अनेक प्रकार से शिकार आदि से अपने परिवार का पालन करता रहा हूँ।अब  मैं कभी हिंसा नही करूंगा। सत्य और ईमानदारी से परिश्रम कर वन्य कंद, मूल, फल आदि से जीवन यापन करूंगा। 


वह बिल्व वृक्ष से नीचे उतर आया। बान को तूणीर में रखा और धनुष बाण गले में टांग लिया। उन्होंने हाथ जोड़कर मृग समूह को कहा-तुम सभी धन्य हो, प्रभु की कृपा से तुम्ह में सत्य और परोपकार की भावना है। मैंने भी तुम से यह भावना सीखी है। आज से तुम मेरे लिए गुरुतुल्य हो। उन्होंने सभी को अपनी वचन बद्धता से मुक्त कर उन्हें वन में मुक्त जीवन जीने का अभयदान दे दिया। वे सभी हिरन गुरु प्रिय भील को धन्यवाद देते हुए जलपान कर वन में चले गए।


गुरु प्रिय भील ने अपना नाम सार्थक कर लिया। भगवान बाबादेव आदिदेव महादेव शिव ने प्रसन्न हो कर तत्काल उसे अपने दिव्य स्वरूप के दर्शन देकर उसे भक्ति के साथ सुख-समृद्धि का वरदान दिया। उनको भगवान शिव जी ने कहा- वत्स!तुम गूढ़, गुह्य, गोपनीय साधना को जानने वाले तथा मेरे को प्रिय हो इसलिए आज के बाद तुम को लोग गुह्य अथवा गुरु प्रिय नाम से जानेंगे। 


यही है शिव की महा शिवरात्रि की कथा, जिसका गान सम्पूर्ण हिन्दू समूह करता है।

ॐ जय आदि सनातन हिन्दू ।


म.म.स्वामी प्रणवानंद सरस्वती


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