शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

पूरी जगन्नाथ महाप्रभु के प्रथम पुजारी-भील राजवंश क्षत्रिय विश्वावसु

 पूरी जगन्नाथ महा प्रभु के प्रथम पुजारी- भील क्षत्रिय दरबार विश्वावसु-



पुरी का श्री जगन्नाथ मंदिर हिन्दू मंदिर है, यह भगवान जगन्नाथ महाप्रभु श्रीकृष्ण को समर्पित है।


यह भारत के ओडिशा राज्य के तटवर्ती शहर पुरी में है। जगन्नाथ शब्द का अर्थ है जगत के स्वामी। इस पूरी में जगत के नाथ जगन्नाथ महाप्रभु निवास करते है इसलिए इस नगरी को जगन्नाथपुरी कहते है।


इस मंदिर को हिन्दुओं के चार धाम में एक गिना जाता है। यह वैष्णव, शैव तथा चारों वर्ण के सभी लोगों के लिए समान है। इसके चार दिशाओं के चार द्वार चारों युगों में चारो वर्णों के लिए भगवान की समानता का उपदेश करते है।


भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण सब के लिए समान है।

इस मंदिर का वार्षिक रथ यात्रा उत्सव भी प्रसिद्ध है। इस में सम्पूर्ण विश्व के लोग आते है। इसमें मंदिर के तीनों मुख्य देवता, भगवान जगन्नाथ महा प्रभु, उनके बड़े भ्राता बलभद्र और भगिनी सुभद्रा तीनों, तीन अलग-अलग भव्य और सुसज्जित रथों में विराजमान होकर नगर भ्रमण पर निकलते हैं। 


पूरी लोकगाथा और पुराणों से इसके मूल में एक बड़ी सुन्दर कथा आती है। गुजरात प्रभास क्षेत्र में सभी यदुवंशी यादव आपसी युद्ध में मारे गए। उस मे श्रीकृष्ण भी युद्ध में घायल हो गए। बलराम जी ने भी शरीर छोड़ा। उस युद्ध में यदुवंश तथा अन्य  वंश के बहुत से क्षत्रिय वीर बचे थे। उन्होंने श्रीकृष्ण को लेकर जलमार्ग से उत्कल की यात्रा की। आज के पूरी क्षेत्र पर  श्रीकृष्ण के पुत्र अनिरुद्ध शासन  था। जगन्नाथ पुरी में श्रीकृष्ण की मौसी भी रहती थी। यदुवंशी यादवों के आपसी कलह से उत्पन्न विनाश के उपरांत तथा देहत्याग के पूर्व कुछ समय श्री कृष्ण पूरी में रहे थे।


 प्रभु श्री कृष्ण अस्वस्थ थे। उन्हें खासी, जुखाम और बुखार भी था। वैद्यो ने उनका उपचार किया। वे अपने निवास से रथ के द्वारा मौसी तथा अन्य नागरिकों को मिलने निकलते थे। आज भी उसी स्मृति में रथ यात्रा निकलती है। भगवान् श्री कृष्ण ने अंत में अपना शरीर छोड़ दिया। उनका अंत्येष्टि संस्कार भी हुआ। आज उसी स्थान पर लकड़ी के विग्रह को विसर्जित किया जाता है।

       पूरी की लोग गाथा के अनुसार श्रीकृष्ण के अंत्येष्टि संस्कार में शरीर के सभी अंग जल गए परन्तु उनके हृदय का अंश नहीं जला। उसको समुद्र में प्रवाहित किया गया। परन्तु एक आश्चर्य की घटना घटि वह जल पर तरंगित  ह्रदय पिंड नील ज्योति में बदल गया। प्रभु के स्वजन मित्रों में एक भील राजा  भी वहां पर उपस्थित थे। उन्होंने प्रार्थना पूर्वक उस पिंड को बाहर निकाला। वह भगवदीय नील हृदय पिंड विश्वावसु पाकर धन्य हो गए।


राजा विश्वावसु नील पर्वत पर रहा करते थे। वही पर उनका छोटा सा राज्य था। वे भील राजा न्यायप्रिय, कृष्ण भक्त तथा यदुकुल के चंद्र वंशी शाखा के क्षत्रिय थे। सभी भील आदिवासी करीब इसी शाखा के खत्री है। उनका भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में अत्यधिक अनुराग था। उस समय वे भी वहां पर शोकाकुल अवस्था में प्रभु के विरह थे। कुछ परम्पराओं का कथन है कि वही भक्त जरा भील प्रभु की सेवा में रहा। और वही प्रभु की कृपा से जगन्नाथ महा प्रभु का प्रथम पुजारी बना।


 वे उस दिव्य नील भगवद विग्रह को लेकर अपने घर आ गए। उनका नाम रखा नील माधव। वे नील पर्वत की एक गुफा में नील माघव के नाम से पुजे जाने लगे। नील माधव भील राजा विश्वावसु के आराध्य देव थे। वर्षों तक उन्होंने महाप्रभु की नील माधव के रूप में पूजा की।


उसके अनंतर भगवान ने प्रभु का दारू मयि विग्रह बनाकर पूजा करने का आदेश दिया। तब से दारू विग्रह बनाकर उनके हृदय में नीलमाधव प्रभु को स्थापित किया जाता है। उसको ब्रह्म संबंध कहते। हर 12 वर्ष में एक बार नया विग्रह बनता है  पुराने विग्रह को विसर्जित कर नए की स्थापना की जाती है। परंतु वही पुराना हृदय में स्थित प्रभु का हृदय अंश नील माधव जी को नए विग्रह में स्थापित किया जाता है। यह क्रिया बड़ी गोपनीय तथा पारम्परिक लोगों द्वारा की जाती है।


म.म.आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी प्रणवानंद सरस्वती- वृन्दावन

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