शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

 श्री श्री बिरसा देव मुंडा


जय आदि सनातन।


विरसा देव मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 में झारखंड राज्य के रांची में एक सनातनी आदिवासी जनजाति में हुआ ।

उनका नाम मुंडा रीति से बृहस्पति वीरवार के नाम पर बीरसा रखा गया।


उनका बाल्य काल विलक्षण था। वे भेड़ बकरियां चराते हुए मधुर स्वर में कृष्ण की बंशी बजाया करते थे। वे अद्भुत विलक्षण बालक थे, उन्होंने कद्दुका एक तार वाला वाद्य यंत्र एकतारा बनाया था। वे उस पर जनजाति भजन गाकर आनन्द में मस्त हो जाया करते थे।


उनके थोड़ा बड़ा होने पर बिरसा देव को उसके पिता द्वारा चाईबासा के एक जर्मन मिशन कॉलेज में शिक्षा आरंभ करवाई। 


उस समय सभी मिशनरी स्कूलों में वनवासी हिन्दू संस्कृति का मज़ाक उड़ाया जाता था।

इस पर वीरसा ने भी ईसाइयों का मज़ाक उड़ाना आरंभ कर दिया। इस कारण ईसाई धर्म प्रचारकों ने बिरसा देव को मिशनरी स्कूल से बाहर निकाल दिया।


यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि बिरसा देव के पिता सुगुणा देव मुंडा तथा उनके चाचा, ताऊ सभी ईसाई धर्म के षड्यंत्र में फंसकर ईसाई धर्म ग्रहण कर चुके थे और वे ईसाई धर्म प्रचारकों के सहयोगी के रूप में काम भी कर रहे थे। लेकिन विरसा देव मुंडा अपनी सनातनी संस्कृति तथा धर्म छोड़ने को तैयार नही थे। सनातन धर्म उनकी आत्मा में बसा हुआ था।


ऐसे में बिरसा देव के अंदर मिशनरियों के विरुद्ध रोष पैदा होना किसी चमत्कार से कम नहीं था।


स्कूल छोड़ने के बाद बिरसा देव के जीवन में नया मोड़ आया। वे  सनातनी धर्मगुरु स्वामी आनन्द के संपर्क में आये। उन्हें अपनी आत्मा मिल गयी। उसके बाद बिरसा देव ने महाभारत और हिन्दू धर्म का पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया। उन्हें अपने धर्म और संस्कृति की महानता का परिचय हुआ। वे वैष्णव धर्म मे दीक्षित हो गए। उन पर गुरु की कृपा हो गई। 


उनके जीवन में देवत्व प्रगट हुआ। वे महान सिद्ध परम्परा के अनुभवी अवतारी पुरुष बन गए। उसके बाद 1895 में उनमें दैवी शक्ति का अवतरण हुआ।कुछ ऐसी आलौकिक घटनाएं घटी कि बिरसा देव के स्पर्श मात्र से लोगों के रोग दूर होने लगे।


बिरसा देव मुंडा ने आदिवासियों की ज़मीन छीनने, लोगों को ईसाई बनाने और उनके द्वारा युवतियों को दलालों द्वारा उठा ले जाने वाले कुकृत्यों को अपनी आंखों से देखा था। उनके मन में अंग्रेजों के अनाचार के प्रति क्रोध की ज्वाला भड़क उठी। वे समझ चुके थे धर्मान्तरण और आदिवासियों प्रति अनाचार के के कारण ईसाई अंग्रेज ही है।


जनवरी1900 में अंग्रेजों के साथ संघर्ष हुआ। उसमें 400 औरतें और बच्चे भी मारे गए। वह संघर्ष एक प्रकार से जनजाति हिन्दू और ईसाई धर्म संघर्ष में बदल गया। क्योंकि ईसाई नही चाहते थे कि वे ईसाई धर्म परिवर्तन को रोके। वीरसा देव के बहुत से अनुयायी बंदी बना लिए गए।


उन्होंने किसानों के शोषण के विरुद्ध आवाज उठाकर ईसाई अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध बिगुल फूँक दिया। उन्होंने लोगों को ईसाईयों और मादक पदार्थों से दूर रहने की सलाह दी।


 जन सामान्य में बिरसा देव के प्रति महान अवतारी पुरुष की तरह दृढ़ विश्वास और अगाध श्रद्धा ने जन्म लिया।


सही भी था लोगों को शोषण और अन्याय से मुक्त कराने का काम ही तो अवतारी पुरुष करते हैं वही काम वीरसा देव ने किया।


बिरसा देव के उपदेशों का असर समाज पर होने लगा और जो मुंडा एवं जनजाति आदिवासी ईसाई बन गए थे वे पुनः हिन्दू धर्म में लौटने लगे।


ईसाई प्रचारकों को ये कहाँ सहन होने वाला था। उन्होंने ईसाई ब्रिटिश सरकार को कहकर बिरसा देव को भीड़ इकट्ठी कर उन्हें आन्दोलन करने से मना कर दिया।


बिरसा देव का कहना था कि मैं तो अपनी जाति को अपना धर्म सिखा रहा हूं। इस पर पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार करने का प्रयत्न किया लेकिन गांव वालों ने उन्हें छुड़ा लिया। शीघ्र ही वे फिर गिरफ़्तार करके दो वर्ष के लिए हज़ारीबाग़ जेल में डाल दिये गये। 


समाज में गुस्सा बढ़ते देख उन्हें यह कहकर छोड़ा दिया गया कि वे ईसाइयों के खिलाफ प्रचार नहीं करेंगे और नही अपने धर्म का प्रचार करेंगे।


बिरसा देव नहीं माने उन्होंने संगठन बनाकर अपने धर्म का प्रचार जारी रखा। परिणामस्वरूप उन्हें फिर गिरफ्तार करने के आदेश जारी हुए। किन्तु बिरसा देव इस बार हाथ नही आये। उन्होंने अपने नेतृत्व में ईसाई अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंककर नए आदि सनातन हिन्दू राज्य की स्थापना का संकल्प लिया। 


24 दिसम्बर 1899 में उन्होंने सीधा आंदोलन प्रारम्भ कर दिया। ईसाई अंग्रेजी शासन के कई पुलिस थानों में आग लगा दी। हजारों ईसाई धर्म भ्रष्टों को मौत के घाट उतार दिया।


अंग्रेज ईसाई सेना से सीधी लढाई सुरु हो गयी। उन्होंने खूब संघर्ष किया। उनके तीर कमान हजारों अंग्रेजी ईसाई सेना की छाती को छेदने लगे। चारों ओर एक ही आवाज गूंजने लगी- हर हर महादेव। विरसा देव की जय। 

तीर और गोलियों का सामना था। बिरसा देव के कई साथी शहीद हो गए।


वही दुर्भाग्य समाज के ही दो लोगों ने धन के लालच में बिरसा देव को गिरफ्तार करवा दिया।


ईसाई अंग्रेजों को डर था कि उन्हें फांसी देने पर जनजाति समाज भड़क सकता है। इसलिए 9 जून 1900 में जेल में ही चुपचाप ईसाइयों ने उन्हें भोजन में जहर देकर मार दिया।बिरसा देव वीरगति को प्राप्त हुए। 

पूरे झारखंड क्षेत्र तथा बाद में उनकी वीरता के किस्से सारे देश भर में साहित्य और लोकगीतों के माध्यम से गूँजने लगे।


हम सभी को यह समझना होगा कि हमारे पूर्वजों ने अपने धर्म की रक्षा के लिए महान बलिदान दिए। शिवाजी के पुत्र संभाजी ने,सिख धर्म गुरु अंगददेव ने, गुरु तेगबहादुर ने, गुरु पुत्र फतेहसिंह और जोरावर सिंह ने  ईसाई और मुस्लिमों के अति अत्याचार सहे लेकिन उन्होंने अपना धर्म नही छोड़ा। 


बिरसा देव मुंडा भी इसी भारतीय परंपरा के महान अवतारी पुरुष थे। उन्होंने भी अनेक कष्ट सहे, वे शहीद हुए लेकिन  ईसाई धर्म को और उनके अत्याचार को स्वीकार नही किया। उन्होंने अपने धर्म का प्रचार कर उसकी महानता को समाज में स्थापित किया।


बीरसा देव के बिना हमारा मूल सनातन आदि धर्म हिंदु अधूरा है।

विरसा देव हमे पुकार रहै है बंधुओं! बाबादेव आदिदेव महादेव में, प्रभु राम, भक्त शबरी में विश्वास करनेवाले हम वन निवासी मिलकर दोबारा सनातन धर्म की पताका लहराए।


बिरसा देव की जय, 

जय आदि मूल धर्म सनातन।आदिदेव महादेव की जय।

हर हर महादेव।


म.म.स्वामी प्रणवानंद सरस्वती-वृन्दावन

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