शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

दलित कुलोत्पन्न भगवान जगद्गुरु देवऋषि नारद


        भगवान के २४ अवतार हुए है.वे सभी मानव जाती के उद्धार के लिए ही हुए है.भगवद दृष्टि में कोई भेद नही होता है .मानवीय स्वार्थी मन उसको अपने स्वार्थ के लिए दिखाने की कोशिस करता है. बहुत सुखद बात है, हिन्दू धर्म के निर्माण में शुद्र कुलोत्पन्न महा पुरुषों का बहुत बड़ा योगदान रहा है. परन्तु कुच्छ स्वार्थी लोंगो ने इस पवित्र एवं गौरवपूर्ण तथ्य को छिपाकर शुद्र कुल एवं उस के गौरव बोध को अपहृत करने की पूरी कोशिस की है. और वे उस में सफल भी होते दिख रहे है.महान ग्रन्थ महाभारत, १८ पुराण एवं हिन्दू धर्म ग्रन्थ भगवद गीता जी के लेखक हिन्दू धर्म के शिल्पी महर्षि वेद व्यास जी तथा जगद्गुरु देवऋषि नारद जी तथा रामायण के आदि कवि महर्षि वाल्मीकि जी आदि पवित्र शुद्र कुलोत्पन्न भगवदीय महापुरुष है. परन्तु हमने इस पवित्र गौरव बोध को सामान्य जन तक पहुँचने का प्रयत्न नही किया और नही हम इस गौरव को पहचान कर महान बननेकी ओर अग्रस्सर हुए.प्रकाशमय पूर्ण चन्द्र को जन्मना वर्णवाद के राहु ने ग्रसित कर लिया.बाद में हम यह भी भूल गए की ये महा पुरुष हमारे ही शुद्र कुल में उत्पन्न हुए थे और हमारा भी कुल वैसा ही पवित्र है जैसे अन्य कुल.
        जब तक ब्राह्मन जाती त्याग, दया,सत्य, संयम आदि दिव्य गुणों से संपन्न थी..जाती की अपेक्षा गुणों को जादा महत्व दिया जाता था तब यह देश जगद्गुरु भारत था, सोनेकी चिड़िया कहलाता था. परन्तु कालांतर में स्वार्थ के विष ने सर्वजन के बहुजन हिताय बहुजन सुखाय के महा मंत्र को भुलाकर महान बनने के गणित को बिगाड़ दिया.
      सौभाग्य से भगवान के २४ अवतारों में तीसरे और १७ वे पवित्र देव ऋषि नारद जी और महर्षि वेदव्यास जी दोनों अवतार दलित कुल में हुए है.स्वयं नारद जी ने अपने आत्म चरित्र में कहा है-.अहम् पुरातित भवे मुने दास्यास्तु कस्याश्चन वेद वादिनाम .....मै एक घरो में काम करनेवाली गरीब पवित्र दासी का पुत्र था.बाल्यावस्था में ब्राह्मणों ने मुझे संतो की सेवा में नियुक्त किया था..यहि नारद जी भगवन के १७ वें अवतार हुए है. देवर्षि नारद जी जैसा कोई दूसरा ऋषि हिन्दू धर्म में नही हुआ है. उनका देवता, मनुष एवं असुर भी सम्मान करते थे. वे एक गरीब शुद्र कुल मे पैदा होते हुए भी महान तप त्याग के द्वारा सम्पूर्ण विश्व के महान आदर्श बने.भगवान ने शुद्र कुल में नारद के रूप में अवतार ग्रहण कर दिखा दिया की भगवान के लिए कोई वर्ण या जाती भेद नही है. कोई भी व्यक्ति किसी भी जाती,वर्ण में पैदा होकर अपने कर्म से, अपने पवित्र पुरुषार्थ से महान बन सकता है. उन्होंने दलितों,स्त्रियों आदि सभी का उद्धार करने के लिए बहुत प्रयत्न किये है.उन्होंने सनकादी ऋषियों से प्रार्थना की थी की .भक्तिग्यांविरागानाम सुख.......स्थापनं सर्व वर्नेसु मै भक्ति,ज्ञान आदी को चारो वर्णों में फैलाना चाहता हूँ.
       १७ वे अवतार महर्षि वेदव्यास जी दलित जाती की महान मनीषी मत्स्य गंधा और महर्षि पराशर के सुपुत्र थे. उन्होंने तो स्पष्ट रूप से घोषणा की थी की स्त्रिशुद्र द्विज्बंधुनान श्रेय एव भावेदिह ..स्त्रि शुद्र आदि का विकास कैसे हो? उन्होंने शुद्रो,स्त्रियो ,वंचितों आदि के उद्धार के लिए ही १८ पुराण, महाभारत की रचना की और एक दलित रोम्हर्शन को महाभारत और १८ पुरानो का आचार्य बना दिया.इतिहास पुराणानां पिता में रोमहर्षण  ..पहले प्रणवात्मक एक ही वेद था. फिर उन्होंने ही वेद के चार भाग किये और उनके चार नाम रखा दिए. इसीलिए वे महर्षि वेद व्यास कहलाये. महर्षि वेदव्यास आधुनिक हिन्दू धर्म के शिल्पी है.उन्होंने ही हमें वर्ण वाद के मकडजाल से निकाल कर भगवद तत्त्व में प्रतिष्ठित कर दिया .आज हम जो भी कुछ बचे हुए है वह महर्षि वेदव्यासजी के ही कारण है.आज हम लोग महर्षि वेदव्यास के ही शुभ संकल्प को आगे बडा रहे है.
       अब वर्त्तमान का समय शुभ है और बहुसंख्यक मनीषी भी दलितों के उद्धार को मन से स्वीकार कर उन को आगे बढ़ने में मदत कर रहे है.अब हमें अतीत को कोसने की अपेक्षा अतीत से प्रेरणा लेकर वर्त्तमान के परिवर्तन का स्वागत करना शिखना होगा.. यह समय अतीत की बातों को लेकार संघर्ष खड़ा करने की मुर्खता का नही है अपितु सुविधा का सम्यक उपयोग कर आगे बढ़ने का है.आपसी संघर्ष हमें गुलामी के कल में ले जा सकता है. 
      शास्त्र के गहन चिंतन करने पर अवगत होता है की ब्राहण जाती का भी हमारे बहुत बड़ा उपकार है.. प्राचीन समय में वे त्याग, अपरिग्रह,संयम आदि का संकल्प लेकर जीवन जीना और चारों वर्णों  के उत्थान के लिए काम करते रहना ही ब्राह्मन का काम था.. उनके हिस्से में केवल सम्मान था,सुविधा और समृद्धि ब्राह्मनेतर लोगो के हिस्से में थी.भिक्षा मांगकर खाने वाली बात केवल ब्राह्मन के हिस्से में थी.उन में परिग्रह के लिए कोई स्थान नही था.कुछ सौ वर्ष पहले बाहरी आक्रमण के फलस्वरूप हमारी व्यवस्था छिन्नभिन्न हो गई और आत्मरक्षा, संस्कृति रक्षन एवं धर्मं रक्षा के मौलिक भाव ने हमें स्वार्थी एवं संकुचित बना दिया.उसी का दुष्परिणाम आज हिन्दू भोग रहे है. परन्तु आज जो सुधार की भाईचारे के साथ शांति पूर्ण प्रक्रिया चल रही है ऐसी ही चलती रहे, इस को किसी की नजर न लगे, कुछ शिरफिरे सनकी, स्वार्थी पागल लोग हिन्दू एकता को तोड़ने में सफल नही हो पाए तो कुछ दशक बाद ही हम संतोष , सम्मान, सुविद्धा एवं समत्वपूर्ण हिन्दू समाज का निर्माण होता हुआ देख लेंगे.

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