हिन्दू धर्म का समत्व मूलक सिद्धांत
समत्व पूर्ण दृष्टि:-
हिन्दू
धर्म का सर्वोच्च सिधांत अहिंसा, दया, क्षमा, सत्य, समत्व, संयम,
सहिष्णुता आदि के आचरण का है. वेद कहते है- सर्वं खल्विदं ब्रह्म= यह सब
परमात्मा का ही रूप है. सर्वे भवन्तु सुखिन:= सभी का कल्याण हो, सभी सुखी
होवे. सियाराम मय सब जग जानी= सम्पूर्ण जगत सीता राम मय समझो. भगवान श्रीकृष्ण कहते है- मयाततमिदं सर्वं जगदव्यक्त्मुर्तिना//
अव्यक्त मुर्ती मेरे द्वारा सम्पूर्ण जगत व्याप्त है. सर्वत्र आत्मभाव,
सर्वत्र परमात्मभाव हि हिन्दू धर्म का मूल मंत्र है. भगवान श्री कृष्ण कहते
है- विद्याविनयसपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनी / शुनिचैव श्वपाके च पंडिता:
समदर्शिन: // ५.१// सम: सर्वेषु भूतेशु मद्भक्तिं लभते नर://१८.५४//ज्ञान
एवं ज्ञान जन्य विनय से संपन्न ब्राह्मन में, गाय में, हाथी में, कुत्ते
में एवं हिंसा वृति से जीवन जीनेवाले लोगों में भी जो समत्व रूप भगवान के
दर्शन करता है और जिनके दृष्टि में छोटा-बड़ा, उच्च- नीच, छूत- अछूत आदि
का भेद नही है. यही ज्ञानी सर्वोच्च व्यक्ति है. वही मेरे भक्ति को
प्राप्त करता है. यह हिन्दू धर्म का मूल सर्वाच्च सिद्धांत है.
विषमता विकृति है संस्कृति नहीं:-
विषमता, घृणा, उच्च नीच आदि की वर्त्तमान निम्न मानसिकता विकृत हुई वर्ण व्यवस्था का
अंग है. यह प्राचीन समय में समत्व मूलक एवं लोकोपकारी व्यवस्था रही है. यह
मनु से भी पहले वेदोक्त है. मनु उसके केवल योजनाकार है. पित्री पुरुष समदर्शी आदि मनु की वर्त्तमान
मनु स्मृति भी कालांतर के स्वार्थपूर्ण लोगों के द्वारा विकृत है.
क्योंकि वर्त्तमान की मनुस्मृति में जो बाते लिखी है वह आदि मनु कह ही नही
सकते. उनकी वह व्यवस्था पहले जन्म पर आधारित थी नकि कर्म पर. मनु का वचन है>जन्मना जायते शुद्र: संस्कारात द्विज उच्यते //
प्रत्येक व्यक्ति जन्म से शुद्र= लघु, बिज की तरह पैदा होता है. परन्तु
वह अपनी जैविक उर्जा, बौद्धिक क्षमता, अनुकूल शिक्षा एवं सम्यक दीक्षा के
द्वारा समाज के योग्य बड़ा बनता है. चातुर्वर्ण्यं
मया सृष्टं गुण कर्म विभागश:// गुण= व्यक्ति का स्वभाव एवं कर्म= तत्तत
कर्म, काम करने की योग्यता के अनुसार व्यक्ति का परिचय बनता है. आगे बढ़ने
का जन्म तो एक प्रकार से अवसर है. जन्म के बाद व्यक्ति क्या बनेगा इसकी
दिशा उसको तय करनी है.
मूल रूप में वर्ण व्यवस्था का प्राचीन रूप केवल योग्यता के अनुसार कार्य
का नियोजन मात्र था. कर्म की योग्यता एवं बौद्धिक सुजबुझ पर आधारित सब के
लिए समान काम का बटवारा ही उसका मूल मंत्र था. उस में किसी भी प्रकार
विषमता, घृणा, उच्च नीच भाव आदि निम्न मानसिकता नही थी.
कर्म ही व्यक्ति का परिचय:-
कार्य की दृष्टि से ब्राह्मन= शिक्षक वर्ग,
क्षत्रिय= सैनिक वर्ग, वैश्य= व्यापारी वर्ग और शुद्र= मजदूर वर्ग में
विभक्त किया गया है. कुछ संयमी, तितिक्षु, अपरिग्रही, विनयी, त्यागी,
विरागी, जिज्ञासु प्रवृति के लोग ब्राह्मण= शिक्षक बन जाते थे. उनका काम था
स्वयं संयम, त्याग में रहते हुए ज्ञान को पाना और चारो वर्णों के हित में
उन्हें ज्ञान देना, धार्मिक कर्म करना और कराना, भोगविलासी वस्तुओं के
संग्रह से दूर रहना. वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मन को धन, संपत्ति आदि के
संग्रह का अधिकार नही था.. वे संयमी, अपरिग्रही लोग आजीवन भिक्षा वृति से जीवन यापन किया करते थे.
जो लोग आस्तिक, बलिष्ठ, साहसी, उदार, समाज एवं राष्ट्र की रक्षा के लिए
तत्पर थे वे क्षत्रिय= सैनिक बन एवं शासक बन जाते थे. उनका काम था जीवन को
हथेली पर रखकर धर्म की, चारो वर्ण के लोगों की एवं अपने राष्ट्र की रक्षा
करना. इनको भोगविलास की वस्तुएं रखने एवं धर्म, समाज एवं राष्ट्र रक्षा
के लिए धन संग्रह करने का अधिकार था.
वैश्य= व्यापारी वह समुदाय था जो व्यापार के तत्त्व को समझने में समर्थ
था. उसका काम था कृषि, गौ पालन एवं व्यापार के द्वारा चारो वर्णों की
आवश्यकता की सभी वस्तुएं उत्पन्न करना और उसका सब जगह आवश्यकता के अनुसार
समान रूप से वितरित करना. वह धर्म पूर्वक धन का संग्रह समाज एवं राष्ट्र
की रक्षा के लिए कर सकता था.
शेष बचे हुए लोग शुद्र= मजदूर के रूप में समाज के दृढ अंग बन जाते थे.
इनका कार्य था सर्विस=सेवा करना. इन्हें वेद में भगवान के पैरों से
उत्पन्न कहा है. पद्भ्यां शुद्रो अजायत// शुद्र= मजदूर भगवान के पैर से
उत्पन्न हुए है क्योंकि वे सम्पूर्ण शरीर के आधार पैर की तरह समाज का आधार
है. ब्राह्मन शिक्षा का, क्षत्रिय रक्षा का और वैश्य व्यापार का काम भी
मजदूर के बिना नही कर सकता है. इनका काम था शिक्षा, रक्षा एवं व्यापार में
मदत करना और योग्यता के अनुसार उस भूमिका के लिए भी अपने को तयार करना.
यह समाज अर्थ शास्त्र एवं सर्व समाज था आधार स्तम्भ था. इनका प्रमुख रूप
से बारह बलौतदार के रूप में वर्णन है - १) सूत्रकार= दरजी= वस्त्रों का
निर्माण करना, वस्त्र सिलना आदि. २) कुम्भकार= मिटटी, काष्ठ आदि के
जीवनोपयोगी पात्र बनाना, ३) चर्मकार= चर्म सम्बन्धी काम करना. चमड़ी के
जूते, चप्पल, बैग, पानी ले आने जाने वाले मशक, पात्र, वाद्य यन्त्र के
उपकरण, तलवार की मेन आदि बनाना. ४) तेली= तिल, मूंगफली, सरसों, नारियल,
चमेली आदि सभी प्रकार के तेलों को निकलना. ५) माली= फुल को पैदा करना,
सूत, तुलसी, चन्दन, मोती आदि की मालाओंको बनाना एवं बुनना. ६) तम्बोली=
सुपारी, पान, सौंप आदि मुख शुद्धी के साधन बनाना, ताम्बुल बनाकर लोंगो को
खिलाना. ७) लोहकार (लोहार)= लोहे के दैनिक उपयोग में आनेवाले उपकरण, खेत
में काम आनेवाले औजार एव सेना के उपयोगी अस्त्र-शस्त्र आदि बनाना, ८)
सुवर्णकार= सुवर्ण के गले, नाक, कान, हाथ, पैर आदि में पहनेजानेवाले
अलंकार, मुगुट आदि बनाना. ९) सुतार = बड़ई= लकड़ी के घर, गृहोपयोगी सामान,
रथ, बैल गाडी आदि बनाना. १०) नाइ= सौन्दर्य प्रसादन की सामुग्री तयार
करना एव केश को काटना, उसकी साज-सज्जा आदि करना. ११) मिस्त्री= घर, महल,
मंदिर, धर्म शालाये, कुंए, किल्ले आदि बनाना. १२) धोबी= वस्त्रों को
धुलाना, उनको रंग देना आदि काम करना.और भी बहुत से काम थे वे सब मिलजुलकर
एक परिवार की तरह करते थे. जीवनोपयोगी सामग्री को एवं युद्ध के सामुग्री
को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने आने आदि का काम भी यहि समुदाय करता था.
इन्हे काम के बदले पर्याप्त मात्रा में आजीविका की सामुग्री, जमीने, घर
आदि उपहार के रूप में दिए जाते थे.
ब्राह्मन और शुद्र की सुरक्षा, आजीविका एवं जीवनोपयोगी सामुग्री का
दायित्व क्षत्रिय और वैश्य का था. इनके भूखे रहने या मांगकर खाने से
क्षत्रिय और वैश्य अपना अपमान, पाप समझते थे. भिक्षा केवल सभी वर्णों के
साधु, गुरु कुल के सभी ब्रह्मचारी प्रशिक्षु एवं अपरिग्रही ब्राह्मन की
आजीविका थी. जो उन्हें आत्मनिर्भर, निश्चिन्त और निरभिमान बनाती थी.
धर्म का मानवीय रूप:-
वे
सनातनी हिन्दू लोग अति तितिक्षु , सहनशील, धर्म परायण, संतुष्ट एवं
अंतर्मुखी प्रवृति के थे. वे असुविधाजनक स्थिति में होते हुए भी अपने
अपने काम को पूर्ण समर्पण के साथ धर्म समझकर सम्पन्न किया करते थे. उन
में परस्पर प्रेम था. विवाह, सुख दुःख आदि में वे एक दुसरे की मदत किया
करते थे.
मैंने स्वयं अपने गाँव में देखा है. चारो वर्णों के लोग बड़े ही प्रेम से
रहते थे. बड़े वृद्ध शुद्र जनों को भी हम कम उम्रवाले लोग प्रणाम करते
थे. ज्ञान से ब्राह्मन, बल से क्षत्रिय, धन से वैश्य और उमर से शुद्र को
पूज्य, बड़ा माना जाता है. साल के अंत में कुम्भार, चर्मकार, नांउ आदि सभी
लोग अपना अपना हिस्सा लेने के लिए खेत में आ जाय करते थे. उन्हें खेत से
ही किसानों से सालभर से भी ज्यादा अनाज, घास आदि मिल जाता था. वे व्रत,
उत्सव, त्यौहार, उपवास, यज्ञ, विवाह, पम्पराएँ आदि सब मिलकर मनाते थे.
वे सभी लोग भगवान को सामने रखकर अर्थ और काम का धर्म पूर्वक उपयोग करते
थे.. उनके लिए धर्म से बड़ी दूसरी कोई चीज नही थी. संसारिक संतोष एवं उससे
पूर्ण वैराग्य के क्रमिक विकास हेतु शास्त्र ने धर्म, अर्थ, काम और
मोक्ष ये चार पुरुषार्थ कहे है.ये चारो मानव मात्र के जीवन के समान
उद्देश्य है. काम और अर्थ का मूल धर्म है.काम और अर्थ को धर्म,निति सम्मत
होना चाहिए. तभी वह मोक्ष के प्रति कारण बनेगा, समाज सुखी होगा.उसको मोक्ष
मिलेगा. मोक्ष अर्थात आत्मबोध के फलस्वरूप अज्ञान के साथ सम्पूर्ण मानवीय
अज्ञान, जलन, घृणा, इर्षा, रागद्वेष आदि कमियोंका समूल उछेद.
धर्म के आश्रय से नैतिक नियमों के द्वारा लोग व्यवहार को नियमित, संयमित किया जाता है. अपने मन, वाणी, इंद्रियों आदि का संयम कर अपने अपने विश्वास के अनुसार भगवान,
देवी, देवताओं आदि का पूजन, पाठ, यज्ञ, दान आदि क्रियाओं के द्वारा अपना
भाव समर्पित करना धर्म है. यहाँ तक की भगवान का रूप समझकर पेडपौधों का
पूजन, सब के साथ प्रेम पूर्वक आचरण भी एक धर्म की क्रिया का ही अंग है.
दिव्य परम्पराएँ:-
मानवीय संकृति उनके रहन सहन, खान पान, पहनावा, भाषा, व्यापार, कला, संगीत एवं तकनीकी आदि के रूप में झलकती है. एक
समय यह भारतीय धर्म एवं संकृति अत्यधिक समृद्ध थी. उस समय यह देश सोने की
चिड़िया कहलाता था. यहाँ प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी उन्नत परंपरा से
जुडा हुआ था. गुरु नानक देव जी, गुरु रविदास जी, चैतन्य महा प्रभु. आदि
शंकराचार्य, तुलसीदासजी, भगवान बुद्ध, भगवान रामकृष्ण, भगवान ऋषभदेव आदि
महा पुरुषों की अति समृद्ध परम्पराए इस देश में प्रवाहित हो रही थी.
हमारे पूर्वजों की यह बात अत्यधिक प्रशंसनीय थी की वे एकं सत विप्रा
बहुधा वदन्ति के सिद्धांत का अनुसरण करते हुए. विभिन्न विचारों पर एक जगह
बैठकर विचार विमर्ष करते हुए दुसरे के सद विचारों का सम्मान करते थे. उनकी
अनेकता में एकता ही सब से बड़ी शक्ति थी. उनमें विपरीत विचारों को भी
सुनने एवं उसको पचाने का सामर्थ्य था.एक ही घर में, एक ही परिवार में
कोई रामकृष्ण को मानता तो कोई बुद्ध को,कोई शिव को मानता तो कोई महावीर
को, कोई गुरु नानक को कोई कबीर को. सभी लोग इस सत्य को जानते थे की जाना
वही है, पाना वही है, केवल रास्ते अलग दिख रहे है. उनके विभिन्न विचार भी
उनके प्रेम को स्थाई रूप से तोड़ने में समर्थ नहीं थे. उन में मतभेद थे
लेकिन मति भेद नहीं.
इसीलिए इस देव भूमि भारत में अनेको मत मतान्तर स्वतंत्र रूप में विकसित हो सके. इस देश के शांति प्रिय विवेकी मनीषियों ने राम, कृष्ण, शिव, बुद्ध, महावीर, गुरु नानकदेव, संत कबीर, गुरु रविदास जी जैसे अवतारी महा पुरुषों को बड़े ही आदर से स्वीकार किया और उन के विचारों को आगे बढ़ाया. ईसा मसीह, सुकरात, मंसूर, हुसैन साहब जैसे महा पुरुष इस देश की हिन्दू आर्य भूमि में पैदा हुए होते तो यह देश उन्हें सूली पर नहीं चढ़ाता, अपितु उनको अति उल्हास से अपने शिर माथे पर बैठा कर उन के विचारों को आगे बढ़ता.
इसीलिए इस देव भूमि भारत में अनेको मत मतान्तर स्वतंत्र रूप में विकसित हो सके. इस देश के शांति प्रिय विवेकी मनीषियों ने राम, कृष्ण, शिव, बुद्ध, महावीर, गुरु नानकदेव, संत कबीर, गुरु रविदास जी जैसे अवतारी महा पुरुषों को बड़े ही आदर से स्वीकार किया और उन के विचारों को आगे बढ़ाया. ईसा मसीह, सुकरात, मंसूर, हुसैन साहब जैसे महा पुरुष इस देश की हिन्दू आर्य भूमि में पैदा हुए होते तो यह देश उन्हें सूली पर नहीं चढ़ाता, अपितु उनको अति उल्हास से अपने शिर माथे पर बैठा कर उन के विचारों को आगे बढ़ता.
विषमता का जनक इस्लाम:-
इतने
महान विचारों एवं आचरण वाला महा पुरुषों का यह देश, समाज सामाजिक वैमनस्य
पूर्ण भेदभाव एवं अपने लोगों के साथ असहिष्णुता को कैसे प्राप्त हुआ?
संभवत: इसका प्रमुख कारण अपनी कमजोरी और बाहरी आक्रमण
रहा है. बुद्ध, शंकर, महावीर का यह देश धर्म प्रधान हो गया था.शस्त्र का
स्थान शास्त्र ले चुका था. यह देश बाहरी आक्रमण के लिए तैयार ही नहीं था.
इस अहिंसा, करुना, पवित्रतता, तप, स्वाध्याय के देश भारत पर एक बहुत बड़ा कष्ट आ पडा, वह था बर्बर, असभ्य, प्राण पिपासु, असहिष्णु, लुटेरे लोगों का इस्लामी
आक्रमण. यहाँ तो अहिंसा, तप. दया, करुना की साधना हो रही थी. सम्राट अशोक
के बाद तो यहाँ सैन्य शक्ति को करीब करीब समाप्त कर दिया गया था. केवल
व्यवस्था बनाये रखने लिए सेना काम कर रही थी. धार्मिक, सांस्कृतिक,
आर्थिकरूप से समृद्ध भारत पर भूखे नंगे मुस्लिम लुटेरे लगातार आक्रमण करते
रहे. उत्तरा पथ के सभी हिन्दू, जैन, बौद्ध मंदिर
तोड़ डाले गए. पवित्र हरमंदिर साहब को अपवित्र करने की और पवित्र सरोवर को
मिटटी डालकर पाटने की कई बार कोशिस की गई. निरंतर
इस्लामी आक्रमण और सातसौ साल की पराधीनता के कारण इस देश की आतंरिक शक्ति
एकता, भाईचारा, सौहार्द आदि सामाजिक संस्थागत चीजे नष्ट हो गई.
उस समय चारो वर्ण एक शरीर की तरह प्रेम अपनत्व के साथ रहते थे. उन में उचनीच, छुआछुत जैसी सामाजिक कुरीतियाँ भी नही थी. परन्तु
सनातनी भारतीय विदेशी मुगल मुस्लिमों को गोमांस भक्षी अछूत यवन समझते थे
और उनके वहाँ जो भी काम करता या उनके संपर्क में आ जाता उसको भी अछूत
समझकर बहिष्कृत कर देते थे, उन्हें अछूत शुद्र बना दिया जाता था. चाहे
वह ब्राह्मन हो, शुद्र हो, वैश्य हो या क्षत्रिय. आज जिन्हें हम दलित
अथवा ओबीसी कहते है वे चारो वर्णों से उपेक्षित किये गए लोग है. इस
निरंतर इस्लामी आक्रमण और सातसौ साल की पराधीनता के कारण इस देश का
आतंरिक व्यवस्थागत ढाचा बिखर गया. दुर्भाग्य से सुविधा और समृधि, राज्य
और राज्य की शक्तियाँ इस्लामी लुटेरों के हाथों में चली गई. भारतीयों की
एकता, भाईचारा, सौहार्द आदि समत्वपूर्ण सामाजिक संस्थागत चीजे नष्ट हो गई.
उसके जगह पर स्थान लिया छुआछुत, भाई भतिजावाद, पीड़ा, उत्पीडन, विषमता
आदि ने.
मुस्लिम साढ़े सातसौ साल तक इस देश के शासक रहे. उन्होंने इस देश को लुटने, बड़े बड़े किल्ले, महल, कबरे बनाने और नवाब बनने के अलावा कुछ नहीं किया. मुगल के आक्रमण से जितना नुकसान समत्वपूर्ण हिन्दू व्यवस्था को हुआ है उतना किसी से भी नहीं हुआ है.
मुस्लिम साढ़े सातसौ साल तक इस देश के शासक रहे. उन्होंने इस देश को लुटने, बड़े बड़े किल्ले, महल, कबरे बनाने और नवाब बनने के अलावा कुछ नहीं किया. मुगल के आक्रमण से जितना नुकसान समत्वपूर्ण हिन्दू व्यवस्था को हुआ है उतना किसी से भी नहीं हुआ है.
हिन्दू गौरव :-
अत: हमें आर्य हिन्दू संस्कृति की महान गौरवमयी संकृति के उद्धार के लिए अतीत की भूलों का परित्याग कर नए समत्वपूर्ण समाज की स्थापना का संकल्प लेना होगा. हमारी सब से बड़ी शक्ति है- अनेकता में एकता, समता. इनमें विरुद्ध विचारों को भी पचाने का सामर्थ्य है. प्राचीन आर्य गौरव को प्राप्त करने के लिए वंचित किये गए बहुजन समाज के साथ समत्वपूर्ण व्यवहार के द्वारा उनके सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं राजनैतिक जीवन स्तर को उठाने की भी अति आवश्यकता है.........हरी ॐ.
अत: हमें आर्य हिन्दू संस्कृति की महान गौरवमयी संकृति के उद्धार के लिए अतीत की भूलों का परित्याग कर नए समत्वपूर्ण समाज की स्थापना का संकल्प लेना होगा. हमारी सब से बड़ी शक्ति है- अनेकता में एकता, समता. इनमें विरुद्ध विचारों को भी पचाने का सामर्थ्य है. प्राचीन आर्य गौरव को प्राप्त करने के लिए वंचित किये गए बहुजन समाज के साथ समत्वपूर्ण व्यवहार के द्वारा उनके सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं राजनैतिक जीवन स्तर को उठाने की भी अति आवश्यकता है.........हरी ॐ.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें